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यही है जिंदगी
११५ जब हमने एकान्त के क्षणों में एकत्व का आनंद' अनुभूत नहीं किया होता है। अनेक व्यक्ति और अनेक वस्तु के साथ जीवन जीने की आदत मनुष्य को इस तरह परेशान करती है, जिस तरह शराब की आदत शराब के अभाव में शराबी को परेशान करती है।
यह नहीं भूलना चाहिए कि अनेक प्रिय व्यक्तियों का संयोग और अनेक इष्ट वस्तुओं की प्राप्ति पराधीन है! प्रारब्ध के अधीन है। अनेक प्रिय स्वजनों का क्षण में वियोग हो जाता है... अनेक अभीष्ट पदार्थ क्षण में नष्ट हो जाते हैं... मनुष्य अकेला रह जाता है... ऊपर आकाश और नीचे धरती! उस समय यदि उसके पास ‘एकत्व' के आनंद की साधना नहीं है, तो उसको 'ब्रेनहेमरेज' हो सकता है, या वह पागल... शून्यमनस्क बन सकता है... अथवा आत्महत्या कर सकता है।
अनेकों के साथ रहते हुए भी, हृदयगिरि में एकत्व का झरना बहने दो! कभी-कभी... एकान्त के क्षणों में उस झरने के पास बैठा जाए... उस झरने में डूबा जाए, उस आनंद को मन भर कर पीया जाए... तो ही अनेकों के अभाव में अकेलेपन की उदासी, दिल-दिमाग पर नहीं छायेगी। अनेकों के अभाव में 'एकत्व की साधना' का अवसर दिखेगा, एकत्व में डूबने का आनंद मिलेगा! मन में उदासी का प्रवेश ही नहीं होगा। ___ ऐसा कोई अच्छा कार्य, मनपसन्द कार्य खोज लेना चाहिए जिसे कि एकान्त के क्षणों में... दिनों में... वर्षों में करते रहें... आनंद पाते रहें और कभी भी 'मुझे अकेलापन नहीं सुहाता है...' ऐसी शिकायत नहीं करें। शिकायत तो नहीं करें, अपने मन में भी ऐसा गम नहीं लायें कि 'मैं अकेला हूँ... मेरा कोई नहीं...।' ___ 'मैं अकेला हूँ, मेरा कोई नहीं है,' अदीन भाव से चिन्तन करते-करते कब
सो गया... पता ही नहीं रहा। प्रातःकाल हुआ... आकाश स्वच्छ था... और चिड़िया उड़ गयी थी...!
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