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यही है जिंदगी
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५२. जीने का तरीका ।
व्यक्तित्व का मोह? इज्जत और प्रतिष्ठा का व्यामोह!
कभी-कभी महसूस करता हूँ कि यह मोह-व्यामोह मनुष्य को दंभी बना देता है। भयभीत बना देता है... अशान्त और बेचैन बना देता है। इज्जत और प्रतिष्ठा का सम्बन्ध दुनिया से होता है। इसलिए, इज्जत से जीवन जीने की स्पृहावाला मनुष्य दुनिया का खयाल करता रहता है। 'दुनिया की निगाह में मेरा व्यक्तित्व गिरना नहीं चाहिए। दुनिया की दृष्टि में मेरा 'स्टेटस' बना रहना चाहिए...।' यह खयाल कितना नुकसान करता है - यह गंभीरता से सोचना आवश्यक लगता है।
'दुनिया में जीना है तो दुनिया का खयाल रखना चाहिए...' इस विचार को दृढ़ता से पकड़ने वाला इन्सान सर्वप्रथम तो 'दंभी' बनता है। दुनिया की दृष्टि में जो बुरा काम होगा, वह काम यदि उसको करना है, वह दुनिया से बचकर करेगा। कुछ काम ऐसे होते हैं कि जो मनुष्य को अच्छे लगते हैं, सुखदायी लगते हैं - परन्तु दुनिया की दृष्टि में अच्छे नहीं होते। मनुष्य ऐसे काम 'प्राइवेट' में करता है। दुनिया को वह बताता है कि 'मैं ऐसे काम नहीं करता
ऐसा दंभी जीवन निर्भय नहीं होता। सतत भयग्रंथि बनी रहती है। भयभ्रान्त मन चंचल बना रहता है। चंचल मन कार्यसिद्धि नहीं कर सकता । चंचल मन अशान्त बना रहता है। अशान्त मन जीव को दुःखी करता है। सुख के साधन उपलब्ध होने पर भी वह 'सुखी' नहीं बन सकता है। शांति के स्थान में होने पर भी वह 'शांति' अनुभव नहीं कर सकता है। धर्मसाधना का अवसर प्राप्त होने पर भी वह धर्मसाधना में प्रवृत्त नहीं हो सकता है। जीवन दुःखपूर्ण बन जाता है।
कई दिनों तक सोचता रहा । 'क्या मनुष्य दुनिया की परवाह किये बिना नहीं जी सकता...?' प्रश्न उठा। _ 'क्यों नहीं जी सकता? अवश्य जी सकता है। दुनिया से निरपेक्ष जीवन जीने के लिये चाहिए निःस्पृहता । निःस्पृह बनने के लिये चाहिए अपने शुभाशुभ कर्मों पर विश्वास । इज्जत और प्रतिष्ठा शुभकर्म का - पुण्यकर्म का उत्पादक
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