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यही है जिंदगी
१०३ में नहीं आ सकती। परन्तु व्यामोह आन्तर-निरीक्षण नहीं करने देता! पदप्रतिष्ठा का व्यामोह बहुत ही भयानक होता है। ___ जो महायोगी होते हैं, जो आत्मप्रेमी महानुभाव होते हैं, उनके पास सिद्धियाँ और लब्धियाँ होने पर भी वे इस स्वार्थी दुनिया से दूर रहना पसन्द करते हैं! रागी-द्वेषी जीवों से अलिप्त रहना चाहते हैं। अपनी शक्तियों का वे प्रदर्शन करना कभी नहीं चाहते हैं।
शक्ति-प्रदर्शन, सिद्धि-प्रदर्शन की आकांक्षा कहाँ से उठती है? 'मेरी शक्ति, मेरी सिद्धि देखकर लोग मेरी प्रशंसा करेंगे! लोगों की मेरे प्रति श्रद्धा बढ़ेगी। मैं असाधारण व्यक्ति बन जाऊँगा।' इस प्रकार की वृत्तियाँ ही सिद्धि-प्रदर्शन के लिये मनुष्य को उत्तेजित करती हैं। ऐसी वृत्तियाँ अध्यात्ममार्ग की यात्रा में बाधक बन जाती हैं। साधक, साधक ही नहीं रह पाता है। साधना, साधना नहीं रह पाती है | साधनामार्ग से साधक भ्रष्ट हो जाता है। ___ 'तो क्या सिद्धि का कोई विशेष प्रयोजन नहीं है?' मन में प्रश्न पैदा हुआ। भूतकालीन महापुरुषों के प्रति मानसयात्रा प्रारम्भ हुई। अनेक योगसिद्धियों से विभूषित कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचन्द्रसूरिजी के पास मानसयात्रा रुक गई!
केवल धर्मरक्षा के लिये ही सिद्धि का उपयोग! केवल धर्मप्रभावना के लिये ही योगसिद्धि का उपयोग! स्वमहत्ता की कोई कामना ही नहीं। स्वमहत्ता को बढ़ाने के लिये सिद्धि का कोई प्रयोग नहीं! योगसिद्धि से वे आकाशगमन कर भृगुकच्छ भी गये थे और योगसिद्धि से देवी कंटकेश्वरी को भी झुका दिया था। योगसिद्धि से मुगल बादशाह को पलंग के साथ उड़ा कर भी ले आए थे! परन्तु कोई स्वार्थ नहीं था उनको। सिर्फ थी धर्मरक्षा, धर्मरक्षा की मंगलमय कामना।
ऐसी तो कोई शक्ति उन तीनों महानुभावों में नहीं है... फिर भी वे अहंकार से फूले नहीं समाते! मैं तो चाहता हूँ कि जब तक सत्त्व विकसित न हो तब तक सिद्धि प्राप्त न हो! जब तक स्वमहत्ता की कामना नामशेष न हो तब तक सिद्धि प्राप्त न हो! सिद्धि प्राप्त होने पर भी सिद्धि-प्रदर्शन की वासना जाग्रत न हो! भौतिक सिद्धियाँ प्राप्त करने की इच्छा ही जाग्रत न हो! परमसिद्धि प्राप्त करने की भावना कभी भी नष्ट न हो।
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