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यही है जिंदगी
व ५३. चल अकेला... चल अकेला...३
बहुत वर्षों से 'एकत्व' की आराधना कर रहा हूँ। रात्रि के घोर अंधकार में... जब सहवर्ती सभी निद्राधीन होते हैं... जब निकटस्थ वृक्ष पर विहंगम भी विश्रामलीन होते हैं... तब मैं अनेक बार ‘एकत्व' के चिन्तन में डूबा हूँ... एकत्व की अमृतधारा मेरे अंतस्तल पर बहती रही है। निर्जन और सुनसान जंगलों में से गुजरते समय भी, जब साथी-सहयात्री आगे-पीछे होते हैं, मैं 'एकत्व' भावना के चिंतन में लीन बना हूँ... और मैंने वर्णनातीत आन्तर आनंद की दिव्य अनुभूति की है।
जब कभी रास्ते पर, किसी शववाहिनी में मृतदेह देखी है, तब 'जीव इस देह को छोड़कर अकेला चला गया... अकेला आया था... अकेला चला गया...' ऐसे विचार आए हैं और आँखें मूंदकर एकत्व की अमृतधारा में बहा हूँ। जब कभी किसी अनाथ को, निराधार को... किसी वृक्ष के नीचे... या नीलाकाश के नीचे... भूखा-प्यासा-कराहता देखा है, तब दयामिश्रित... करुणामिश्रित एकत्व के विचारों में डूबा हूँ।
रात में, शयन से पूर्व 'एगोऽहं नत्थि मे कोई०' गाथा का पाठ करते समय, 'मेरी आत्मा अकेली है...' इस वास्तविकता का मैंने शीतल स्पर्श पाया है। अनेकत्व की झूठी... मिथ्या कल्पनाओं से उस समय छुटकारा पाया है। __ परन्तु अनेकत्व की मिथ्या-कल्पना, अनेकत्व के साथ जुड़ी हुई इज्जत की कल्पना, अनेकत्व के साथ बंधी हुई सुख-सुविधा की कल्पना... मनुष्य को अनेकत्व को सत्य मानने के लिये मजबूर कर देती है! ऐसी मजबूरी भी मैंने कई बार महसूस की है! व्यवहारमार्ग में 'अनेकत्व' को बहुत प्राधान्य दिया गया है। इतना प्राधान्य दिया गया है कि बेचारा मानव एकत्व की बात से ही घबराने लगता है। जीवन-व्यवहार में अनेकता की अनिवार्यता स्वीकृत कर लेने पर, 'एकत्व' सिर्फ 'पुस्तक-ज्ञान' बन कर रह जाता है। 'एकत्व' केवल विचार-बिन्दु बन कर रह जाता है।
'तो क्या 'एकत्व' केवल विचार-बिन्दु ही है? जीवन-व्यवहार में एकत्व को कोई स्थान नहीं है?' यह एक विकट प्रश्न है। अनेकता की दृढ़ धारणा के साथ, अनेकों की प्रबल अपेक्षाओं के साथ 'एकत्व' की भावना का अस्तित्व भी संभव है क्या? कैसी समस्या बनी हुई है? क्या, एकत्व की भावना का
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