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यही है जिंदगी
१०७ प्रयोगात्मक रूप नहीं होना चाहिए? जीवन-व्यवस्था में एकत्व का स्थान नहीं होना चाहिए? जीवन के प्रारम्भ से अंत तक, अनेकता से जकड़ी हुई जीवनव्यवस्था, आत्मा के आभ्यान्तर विकास में बाधक नहीं है?
संसारी जीवन में तो अनेकता की प्रतिष्ठा है, श्रमण जीवन में भी अनेकता की ही प्रतिष्ठा? अनेकता की अनिवार्यता? जीवन की किसी भी भूमिका पर एकत्व की प्रतिष्ठा नहीं? केवल उपदेशों में ही एकत्व की महत्ता गाने की है? प्राचीन श्रमण-परम्परा में ‘एकत्व' की प्रतिष्ठा थी। श्रमण योग्य भूमिका प्राप्त करता था, ज्ञान-ध्यान और तप-तितिक्षा द्वारा विशिष्ट योग्यता संपादन करता था, तब उसको एकत्व की साधना के लिये मुक्त कर दिया जाता था। वर्षों तक 'एकत्व' की भावना, जो केवल वैचारिक भूमि को नवपल्लवित करती रहती थी, बाद में जीवन-व्यवहार में ओतप्रोत हो जाती थी। अद्वैत की आराधना का अपूर्व आनंद महसूस होता था।
वर्तमानकालीन श्रमण-परंपरा में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है, ऐसी कोई साधना-आराधना की पद्धति दृष्टिपथ में नहीं आ रही है। परिणाम कितना चिन्ताजनक दिखता है? अनेकता के साथ जुड़े हुए राग, मोह, ईर्ष्या, स्पर्धा आदि अनेक दूषण श्रमण जीवन में भी प्रविष्ट हो गये हैं! अनेकता में से एकत्व की ओर अग्रेसर होने का कोई अभिगम ही नहीं बन रहा है। नहीं दिखती एकता और नहीं दिखता एकत्व! नहीं रहा संघ का संगठन और नहीं रहा अनेकता का विघटन...!!
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