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यही है जिंदगी
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संयमी यौवन के पास ही दीर्घ दृष्टि हो सकती है। ज्ञानपूत यौवन में ही आत्मलक्षी विचारधारा बह सकती है । यौवन के साथ अविचारिता संबद्ध हो गई है।
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युवान आज अपने स्वयं के भावी जीवन का भी विचार कहाँ कर रहा है? अपने आरोग्य का, अपनी शांति का, अपनी पवित्रता का विचार कहाँ कर रहा है? पारलौकिक जीवन की तो उसको कल्पना भी नहीं है । आत्मशुद्धि की बात तो उसकी स्वप्नसृष्टि में भी नहीं आती। सिर्फ वर्तमानकालीन वैषयिक भोगोपभोग में डूबा रहता है।
उन्मत्त, उद्धत और अविचारी यौवन पर धर्मोपदेशों का कोई असर नहीं हो सकता। ऐसे लोगों को धर्मोपदेश देने का भी ज्ञानी पुरुषों ने निषेध कर दिया है। उन्मत्त को उपदेश मत दो, उद्धत को उपदेश मत दो, अविचारी को उपदेश मत दो! यदि दिया तो उसकी प्रतिक्रिया गलत आएगी।
बहुत सोच रहा हूँ... यौवन को इस अभिशाप से कैसे मुक्त किया जाय? उन्माद, औद्धत्य और अविचारिता का अभिशाप कैसे दूर किया जाय ? उपाय नहीं मिल रहा है। जो उपाय मिलता है... अशक्य - सा लगता है। राष्ट्रव्यापी विश्वव्यापी... इस अभिशाप को दूर करना सरल कार्य तो नहीं है । समष्टिरूप नहीं तो व्यक्तिगत रूप से भी इस कार्य का प्रारम्भ करना चाहिए । कम से कम धर्मक्षेत्र में प्रविष्ट हो चुके युवावर्ग को तो इस अभिशाप से मुक्त करना ही चाहिए। इसलिए विविध उपायों का आयोजन होना चाहिए। विनय, नम्रता और विचारशीलता से यौवन को सुरभित करना चाहिए। ऐसा सुरभित यौवन ही धर्मपुरुषार्थ के लिए सक्षम बनेगा ।
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