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यही है जिंदगी
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४५. कोशिश... पर किसलिए ?
क्षणिक को शाश्वत बनाने का प्रयत्न, विनाशी को अविनाशी बनाने का प्रयत्न, अस्थिर को स्थिर बनाने का प्रयत्न ! क्या यही पुरुषार्थ चलता रहेगा जीवन में ? मन क्या इसी की योजना बनाता रहेगा ? तो फिर जो वास्तव में शाश्वत है, अविनाशी है... स्थिर है, उसको पाने का पुरुषार्थ इस जीवन में होगा ही नहीं ?
संसार-व्यवहार और व्यवहार-धर्म क्या क्षणिक को निभाने का, विनाशी को पकड़ कर रखने का, अस्थिर को अपने पास बनाये रखने का उपदेश देता है ? तो फिर मन की शांति, परमात्मध्यान में स्थिरता और तत्त्वचिंतन में लीनता कैसे सम्भव होगी ?
क्षणिक, विनाशी और अस्थिर वस्तुओं के सहारे इज्जत बना ली है संसार में! क्षणिक, विनाशी और अस्थिर बातों पर भरोसा कर शुरू कर दिये हैं सामाजिक कार्य? कैसे बनी रह सकती है इज्जत और कैसे सफल बन सकते हैं कार्य?
प्रियजनों के संयोग क्या शाश्वत हैं ? नहीं, फिर भी प्रियजनों से इनका वियोग होगा ही नहीं, इस धारणा पर विश्वास कर लिया है! वैषयिक सुख के साधन क्या अविनाशी हैं ? नहीं, फिर भी उन साधनों पर भरोसा कर लिया है कि ‘ये सुख के साधन मेरे पास रहेंगे ही... कभी नष्ट नहीं होंगे।' क्या शरीर का आरोग्य स्थिर रह सकता है ? नहीं, फिर भी वैसे शरीर पर भरोसा कर, कई ऐसे कार्य शुरू कर दिये हैं... ऐसा समझ कर कि आरोग्य कभी नष्ट होगा ही नहीं!'
प्रिय व्यक्तियों के संयोग को शाश्वत मानकर उनके विश्वास पर कुछ सामाजिक कार्य प्रारम्भ कर दिये । प्रिय व्यक्तियों का संयोग जब गड़बड़ाता है, टूटने की सम्भावना ज्ञात होती है, तब उस संयोग को शाश्वत बनाने का विफल प्रयत्न करता हूँ! भय सताता है... 'यदि यह व्यक्ति चला गया तो प्रारम्भ किया हुआ कार्य संपूर्ण कैसे होगा? यदि संपूर्ण नहीं हुआ तो दुनिया में मेरी बदनामी होगी... लोग क्या कहेंगे?
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नीरोगी शरीर के विश्वास पर कार्य तो उठा लिया... लोगों ने मेरी खूब सराहना की ! प्रशंसा सुनकर खुश भी हुआ । परन्तु जब लगा कि आरोग्य