________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
यही है जिंदगी
__ ९३ 'कुछ भी हो जाए, मुझ पर कृपा करो, मुक्ति दिला दो।' 'तथाऽस्तु।'
वृद्ध के रोम-रोम खिल उठे। उसके हृदय-मंदिर में लाख-लाख दीपक जल उठे | वह घंटों तक वहाँ बैठा रहा और परमात्मध्यान में तल्लीन हो गया ।
जब वह अपने घर लौटा, उसकी आत्मा अपूर्व आनंद से भरपूर थी। उसके हृदय में विश्वास के सहस्रदल कमल खिल गये थे। बाह्य दरिद्रता ने उसको दीन नहीं बनाया । पुत्र के अभाव ने उसको दुःखी नहीं किया। मैंने एक दिन उस वृद्ध से पूछा :
'क्या भौतिक सुखों का आकर्षण कभी नहीं जगता?' 'जगता है कभी... तब अपने परमात्मा से कहता हूँ : 'प्रभो, मुझे इन भौतिक सुखों से बचा लेना...' और मेरे प्रभु मुझे बचा लेते हैं।'
मैंने उस वृद्ध पुरुष की इस बात पर गंभीरता से सोचा। वैसी कौन-सी योग्यता उसमें थी कि उसकी आत्मा परमात्मा से तादात्म्य पा सकती थी। मैंने सूक्ष्मता से उसके व्यक्तित्व को समझने का भी प्रयत्न किया और मेरे मन का समाधान हो गया। निरपेक्ष वृत्ति। निष्काम भक्ति।
ये दोनों तत्त्व उस वृद्ध पुरुष में पाये गये | मोक्षप्राप्ति के लिये यह योग्यता मनुष्य में होनी अनिवार्य है। निरपेक्ष वृत्ति वाला मनुष्य ही निष्काम भक्ति कर सकता है। संसार के भौतिक सुखों की कोई अपेक्षा नहीं होनी चाहिए। __ ऐसी निरपेक्षवृत्ति कब आएगी मेरे जीवन में? बाह्य अपेक्षाओं के अनंत आकाश में कब तक उड़ना होगा? उड़ना और गिरना - अनंतकाल से चल रहा है। कैसे मुक्ति मिलेगी? कैसे आत्मा पूर्णानन्द का अनुभव कर सकेगी? कैसे परमात्मस्वरूप में लीनता प्राप्त होगी?
जानता हूँ कि निष्काम भक्ति करनेवाला मनुष्य ही ध्याता-ध्येय और ध्यान की एकता प्राप्त कर सकता है। निष्काम भक्ति से ही आत्मा निरवधि आत्मानन्द की अनुभूति कर सकता है। निरपेक्ष वृत्ति और निष्काम भक्ति से निरन्तर मेरी आत्मा प्रफुल्लित रहे... स्वभाव में रमणता करती रहे और आत्मा मुक्ति की ओर आगे बढ़ती रहे... यही हार्दिक कामना।
For Private And Personal Use Only