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यही है जिंदगी बिगड़ रहा है, घबराया! मन में अनेक विकल्प पैदा हो गये! अस्थिर आरोग्य को स्थिर करने के भरसक प्रयत्न शुरू कर दिये! मन चिन्ताओं से व्याकुल बन गया!
समाज में... गांव-नगरों में मेरा यश फैल गया... मेरी प्रतिष्ठा जम गई... लोग मेरी इज्जत करने लगे... मैंने यश को शाश्वत मान लिया! भ्रमणा में फँस गया। अब उस यश... इज्जत और प्रतिष्ठा को शाश्वत बनाये रखने की योजना बनाने लगा! परन्तु जब लगा कि यश का महल हिल रहा है, महल गिरने वाला है... मन अत्यन्त व्यथित हो गया, यश के महल को स्थिर रखने की दौड़-धूप शुरू कर दी! यश की एषणा ने मेरा गला घोंटना शुरू कर दिया । अत्यधिक मानसिक तनाव से मन विक्षिप्त हो गया।
यौवन और जीवन का व्यामोह भी, यौवन और जीवन को अविनाशी बनाये रखने की कल्पना देता है। कल्पना में से प्रवृत्ति पैदा होती है।
जानता हूँ कि क्षणिक कभी भी शाश्वत नहीं बन सकता, विनाशी कभी भी अविनाशी नहीं बन सकता, अस्थिर कभी भी स्थिर नहीं बन सकता... फिर भी क्यों क्षणिक के प्रति, विनाशी के प्रति और अस्थिर के प्रति इतना आकर्षण बना रहता है? क्यों उनके प्रति अनासक्ति नहीं आती? शाश्वत, स्थिर और अविनाशी आत्मतत्त्व के प्रति क्यों तीव्र आकर्षण नहीं बना रहता? परमात्मतत्त्व के प्रति अनुराग क्यों पैदा नहीं होता?
कुछ भी हो - क्षणिक, अस्थिर और विनाशी का अनुराग तो टूटना ही चाहिए।
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