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यही है जिंदगी
४६. कुछ भी नहीं चाहिए : सिवा तुम्हारे! ३
एक वृद्ध सज्जन परमात्मा के मंदिर में बैठे थे। दृष्टि परमात्मा की पावनकारी प्रतिमा पर स्थिर थी और मन परमात्मा के ध्यान में लीन था । होठों पर परमात्मा का नाम था...। दो घंटे व्यतीत हो गये, तब उसे एक आन्तर ध्वनि सुनाई दी : 'तुझे क्या चाहिए? जो चाहिए सो माँग ले।'
वृद्ध मुस्कराया... मनोमन प्रत्युत्तर दिया : 'मेरे भगवन, क्या तू देगा मुझे.. जो मुझे चाहिए?' जवाब मिला : 'क्या तुझे मेरे प्रति श्रद्धा नहीं है? सच्चे हृदय से जो मेरे द्वार पर आता है, निराश होकर नहीं जाता... इसलिए तू सोचकर कल प्रातः मेरे पास आना।' वृद्ध ने हर्ष के आँसू बहाते हुए परमात्मा के चरणों में नमन किया और अपने मुकाम पर आ गया। ___वृद्ध रात भर सोचता रहा... उसका रोम-रोम पुलकित हो रहा था... कल्पनासृष्टि में परमात्मा की करुणामयी प्रतिमा प्रसन्नता बिखेर रही थी। 'मुझे प्रातःकाल बुलाया है... मैं क्या माँगूंगा? मुझे क्या चाहिए?' वह सोचता ही रहा। वृद्ध के पास बंगला नहीं था, पुत्र नहीं था, वैभव नहीं था...।
प्रातःकाल उठकर वह परमात्मा के मंदिर में गया । मंदिर में कोई भक्त नहीं था, पूजक नहीं था, पुजारी नहीं था। परमात्मा के चरणों में भावपूर्ण हृदय से नमन कर वह सामने बैठ गया। परमात्मा की प्रतिमा मधुर स्मित बिखेर रही थी। वृद्ध ने परमात्मा के नयनों से त्राटक किया। फिर आँखें मूंद ली... एक दिव्य ध्वनि सुनायी दी : 'बोल तुझे क्या चाहिए?' वृद्ध ने कहा : 'प्रभो, मुझे मुक्ति चाहिए...' 'मुक्ति... मोक्ष चाहिए? बहुत मुश्किल काम है...।' 'आपकी कृपा हो जाय तो सरल काम है!' 'दूसरा कुछ माँग ले... धन, संतान वगैरह माँग ले।' 'प्रभो, आपसे मैं क्षणिक नहीं, शाश्वत माँगने आया हूँ... मुझे धन-संतान वगैरह नहीं चाहिए।' 'मुक्ति पाने का मार्ग कठिन है... बहुत से संकट आ सकते हैं। तू संकट सहन कर सकेगा? जो सुख तेरे पास हैं, वे भी चले जायेंगे | तू उन सुखों के बिना जी सकेगा?'
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