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यही है जिंदगी
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अष्टापद के पहाड़ पर आत्मलब्धि से चढ़ने के लिये कई दिनों से उग्र तपश्चर्या करने वाले १५०३ तापस, गौतमस्वामी के मिलन के बाद अष्टापदयात्रा को भी भूल गये थे ! जब गौतमस्वामी ने उन तापसों को भगवान महावीर के पास चलने के लिए कहा तब तापसों ने नहीं कहा था कि 'गुरुदेव, पहले हमको अष्टापद की यात्रा करा दो, बाद में आपके गुरुदेव के पास चलेंगे।' उन्होंने कुछ नहीं कहा! गौतमस्वामी से मिलने पर शेष कोई इच्छा ही नहीं रही!
क्षीरान्न से पारणा करते-करते ... रास्ते पर चलते हुए और दूर से भगवान महावीर के दर्शन करते ही कब उन तापसों का गुरु-राग भी चला गया और कब पूर्ण समत्व पा लिया... यह रहस्य तो पूर्ण ज्ञानी पुरुषों के पास ही छिपा हुआ है! समवसरण में पहुँचने पर सभी तापस केवलज्ञानी बन गये थे।
परमार्हत् राजा कुमारपाल ने वैसी आत्मस्थिति की कामना की थी और परमात्मा से प्रार्थना की थी :
'कदा मोक्षेप्यनिच्छो भावितास्मि नाथ: ?”
हे नाथ! मोक्ष के प्रति भी इच्छारहित कब बनूँगा? कुमारपाल के हृदय में उस समय संसार के सुखों की कोई इच्छा नहीं रही होगी! मोक्षप्राप्ति की इच्छा से भी वे मुक्ति चाहते थे ! इच्छाओं से मुक्ति, संसार से मुक्ति का उपाय होना चाहिए !
मैं भी इच्छाओं से मुक्ति चाहता हूँ। सभी वैषयिक भौतिक सुखों की इच्छाओं से कब मुक्ति मिलेगी ? यह जीवन पूर्ण हो जाए, इससे पूर्व क्या इच्छारहित बन सकूँगा? यदि इस जीवन में इच्छाओं से मुक्ति नहीं पाई तो भविष्यकाल में आत्मविकास संभव हो सकेगा क्या ?
इच्छारहित बनने की इच्छा से तो अभी मुक्त नहीं बनना है । यह इच्छा तो तब तक बनी रहेगी, जब तक इच्छारहित न बन जाऊँ । इच्छाओं से मुक्ति मिल जाए, बस! कर्मों से मुक्ति मिलने में देरी नहीं होगी ।
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