________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
यही है जिंदगी
___८८ ४४. पर की आशा... सदा निराशा...३
वास्तविकता का अज्ञान ही तो व्यथा और वेदना को जन्म दे रहा है। जो परद्रव्य हैं, जो पर-पुद्गल हैं, उसकों मैं अपना मान रहा हूँ! उसको अपना बनाना चाहता हूँ, अपना बनाये रखना चाहता हूँ! यह अज्ञानता नहीं है तो और क्या है?
परद्रव्यों के सहारे मैं अपना व्यक्तित्व अपना प्रभाव बनाना चाहता हूँ... यह भी अज्ञानता ही है न? यह व्यामोह नहीं है तो और क्या है? जानता हूँ कि परद्रव्य कभी स्वद्रव्य नहीं बन सकता, फिर भी परद्रव्य को 'स्वद्रव्य' मानने लगा हूँ!
इसी वजह से मन में अभाव... न्यूनता, दीनता... महसूस करता हूँ। इसी वजह से मन हजारों विकारों से भर गया है। मोहाक्रान्त और अज्ञानावृत दुनिया की निगाहों में अपने आपका उच्च और भव्य प्रदर्शन करने के लिए परद्रव्यों की तीव्र आवश्यकता महसूस कर रहा हूँ। क्योंकि दुनिया मनुष्य का परद्रव्यों के माध्यम से मूल्यांकन करती है। जिस मनुष्य के पास बहुत ज्यादा परद्रव्य होते हैं, दुनिया उसको महान मानती है।
आत्मतत्त्व के अलावा सभी द्रव्य परद्रव्य हैं। स्वजन, परिजन, वैभव और शरीर परद्रव्य है। यदि मेरा कोई स्वजन नहीं है तो मेरा मन कुछ अभाव महसूस करता है। यदि मेरा कोई परिजन नहीं है तो मेरा मन कुछ व्यथा अनुभव करता है। यदि मेरे पास वैभव नहीं है तो मेरा मन दीनता अनुभव करता है... यदि मेरा शरीर अच्छा नहीं है तो मेरा मन विषादग्रस्त बन जाता
परद्रव्यों का यह तीव्र लगाव जब तक बना रहे, तब तक शांति और प्रसन्नता कैसे मिले? आन्तर-आनंद की अनुभूति कैसे हो?
परद्रव्यों की आसक्ति से हृदय भरा हुआ होता है तब तपश्चर्या भी शांति प्रदान नहीं कर सकती है। व्रत और नियमों का पालन भी आत्मानन्द की अनुभूति नहीं करा सकता है।
परद्रव्यों की आशा-आकांक्षा से मन कब निवृत्त होगा? मुझे वह निवृत्ति चाहिए! मुझे वह मुक्ति चाहिए! सिद्धशिला पर जाने में देरी होगी तो चलेगा, मोक्ष देरी से मिलेगा तो चलेगा, परन्तु पर आशाओं से मुक्ति पाने में देरी होने
For Private And Personal Use Only