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यही है जिंदगी
३६. एकांत : अंगारा भी... अमृतधारा भी...३
खलील जिब्रान ने एक जगह लिखा है : 'विचारों की परी, जब हम एकान्त में होते हैं तभी अपने पास आती है।' ____ 'एकान्त बुरा है।' यह बात भी मैंने किसी पुस्तक में पढ़ी है। अकेला रहना... एकान्त में रहना अच्छा भी है, बुरा भी है!
वास्तव में, एकान्त न तो अच्छा है और न ही बुरा । यदि मनुष्य अच्छा है तो एकान्त अच्छा है, मनुष्य बुरा है तो एकान्त बुरा है। एकान्त... जहाँ मनुष्य को कोई देखने वाला नहीं होता, सुनने वाला नहीं होता... जहाँ मनुष्य का स्वयं ही अस्तित्व होता है... वहाँ अच्छा सृजनकार्य हो सकता है... वहाँ अधम कृत्य भी हो सकता है।
जिसको परोक्ष... अगोचर तत्त्वों का चिन्तन, मनन और पर्यालोचन करना है, जिसको परमात्मध्यान में तल्लीनता प्राप्त करनी है, जिसको अपना तत्त्वचिंतन, अपनी तत्त्वानुप्रेक्षा ग्रन्थस्थ करनी है, उसको एकान्त चाहिए ही। उसके लिए एकान्त लाभप्रद ही होगा। जनसमूह में बैठकर ऐसे महान कार्य सिद्ध नहीं हो सकते।
सतत जनसंपर्क, सतत लोकव्यवहार की व्यस्तता अपनी स्वस्थता को, एकाग्रता को, चिन्तन-मनन को नष्ट कर देती है। कोई भी महान सर्जन नहीं हो पाता है।
मेरे एक मित्र मुनिवर ने एक गांव के विषय में शिकायत करते हुए कहा : 'गांव में हम गये, सारे दिन हम दो साधु ही उपाश्रय में बैठे रहे | कोई आया ही नहीं। हम तो दूसरे ही दिन वहाँ से चल दिये...।' ____ मैंने उनसे कहा : 'मैं ऐसा ही गांव पसंद करता! मुझे ऐसे गांवों में रहने का अवसर नहीं मिलता। यदि मिल जाए... तो कुछ धर्मग्रन्थों पर, अध्यात्म के ग्रन्थों पर मुझे विवेचना लिखनी है... मैं लिख लूँ | ध्यानमार्ग में भी कुछ प्रगति हो सके। परन्तु ऐसे एकान्त स्थानों में रहने का समय ही नहीं मिल रहा है।' __मित्र मुनिवर ने कहा : 'आप लोकोपकार के कार्य करते रहते हैं... हजारों लोगों को धर्मोपदेश देते हैं, जो-जो आपके पास आते हैं, उनकी आत्मा को शांति मिलती है... क्या यह लाभ का काम नहीं है?'
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