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यही है जिंदगी
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२६. यौवन को उजियारा दो! इ
यौवन!
क्या यौवन अभिशप्त है? उन्माद, औद्धत्य और अविचारिता ने यौवन को घेर लिया है। जो यौवन इस प्रचंड घिराव से बच गया है वह यौवन आशीर्वादरूप होता है। आशीर्वादरूप यौवन को कहाँ जाकर खोचूँ? __ पाँचों इन्द्रियाँ उन्मत्त बनकर तांडव नृत्य कर रही हैं... उस भीषण तांडव नृत्य में कैसा डरावना विनाश हो रहा है... पवित्रता नष्ट हो रही है, प्रसन्नता नष्ट हो रही है। अपनी शांति का नाश, दूसरों की शांति का नाश... उन्मत्त यौवन विनाश का डमरू बजाता हुआ अविरत नाच रहा है। इस विनाश-नृत्य में परिवार, समाज और राष्ट्र सम्मिलित हो गये हैं... अरे, विश्वमानव सम्मिलित हो गया है... बहुत थोड़े लोग प्रेक्षक बनकर देख रहे हैं... कौन इस भीषण नृत्य को रोके? जो रोकने की बालचेष्टा करने जाता है... वह भी उस नृत्य में शामिल हो जाता है। शब्द, रूप, रस, गंध और स्पर्श के असंख्य विषयों का प्रच्छन्न और प्रकट भोग-उपभोग यौवन को प्रतिक्षण उन्मत्त बना रहा है।
उन्माद के साथ औद्धत्य ही मित्रता करता है, औचित्य नहीं। अभिशप्त यौवन के साथ औचित्य की मित्रता हो ही नहीं सकती। यौवन से आज विनय, नम्रता और शालीनता की आशा करना व्यर्थ दिखाई देता है। पारिवारिक जीवन-व्यवस्था में से विनय स्थानभ्रष्ट हुआ है। नम्रता का कोई स्थान नहीं रहा और शालीनता स्वप्न बन गई है। सामाजिक जीवन-पद्धति में औद्धत्य प्रविष्ट हो गया है। ज्ञानी और अनुभवी पुरुषों का अनादर हो रहा है। 'बहुमत'
और 'अल्पमत' के भूतों ने समाज को ग्रसित कर लिया है। अज्ञानी और अनुभवविहीन लोगों का बहुमत हो गया है। ऐसे समाज में औचित्यपूर्ण व्यवहार कैसे हो सकता है? उन्मत्त यौवन का औद्धत्य समाज में अशांति, कलह और वैमनस्य फैला रहा है। उन्मत्त हृदय में औचित्य के विचार जाग्रत ही नहीं हो सकते । औद्धत्य उपकारी-परोपकारी पुरुषों का अनादर करता है। इससे 'उपकार-तत्त्व' का ह्रास हो रहा है। उपकार की प्रतिष्ठा टूटती जा रही
सुविचार, दीर्घदृष्टि का विचार... आत्मलक्षी विचार... उन्मत्त यौवन में अब देखने को नहीं मिलेगा । शान्त और स्वस्थ यौवन में ही सुविचार हो सकता है।
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