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यही है जिंदगी
३३. मोक्ष : यहीं पर... अभी! ई
एक प्राचीन महर्षि ने यहाँ - इस संसार में ही - मोक्षसुख का आस्वाद करने का प्रयोग बताया है! अपनी आत्मा में ही मोक्षसुख भरा पड़ा है... बाहर लेने जाने की आवश्यकता नहीं... भीतर में दबा हुआ सुख का स्रोत प्रगट करना है। प्रगट हो सकता है वह स्रोत, परंतु उस पर जमी हुई चट्टानों को तोड़ना होगा, मिट्टी को खोद निकालना होगा!
महर्षि चाहते हैं : (१) मद और मदन पर विजय पाओ। (२) मन-वचन और काया के विकार दूर करो। (३) पर-आशाओं से निवृत्त हो जाओ। इतना पुरुषार्थ करो, यहीं मोक्षसुख का आस्वाद करोगे! सिद्धशिला का मोक्षसुख तो दूर है... यहाँ 'सेम्पल' चख लो... फिर वह शाश्वत्कालीन सुख तो मिलेगा ही। __तीन बातों को वर्षों से पढ़ता आया हूँ... हजारों बार इस श्लोक को दोहराया है। अर्थ भी जानता हूँ, इन बातों पर चिन्तन भी किया है। इतना ही नहीं, इन बातों का हजारों लोगों को उपदेश भी दिया है। परन्तु आन्तर निरीक्षण करता हूँ : 'मैं कहाँ हूँ? कहाँ तक पहुँचा हूँ?' तो घोर निराशा में डूब जाता हूँ।
अभी-अभी नीरव निशाकाल में इन बातों को लेकर खूब विचार आए। मोक्षसुख पाने का पुरुषार्थ करने के लिए तो संसार के सुखों का त्याग कर साधु बना हूँ... परन्तु साधना कहाँ है? मद-अभिमान घटाने का पुरुषार्थ कहाँ है? मदन-विषयवासना को मिटाने का पुरुषार्थ कहाँ है? कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि अभिमान बढ़ रहा है! वासनाएँ उन्मत्त बन रही हैं... मन में संकल्प-विकल्प बढ़ते जा रहे हैं... वाणी और काया की प्रवृत्ति अवश्य कम हुई है, ऐसा लगता है। परन्तु परपुद्गल की आशाएँ... तृष्णाएँ कहाँ कम हुई हैं? __कभी-कभी हृदय वेदना से कराहता है - क्या जीवन ऐसे ही पूरा हो जायेगा? इस जीवन में मोक्षसुख का क्षणिक आस्वाद भी नहीं मिलेगा मुझे?
मद और मदन का दावानल क्या मैं नहीं बुझा पाऊँगा? मन-वचन और काया के विकार-कंटकों को नहीं निकाल सकूँगा? पर-आशाओं के लौहबन्धनों को नहीं तोड़ सकूँगा क्या? मैं टटोलता हूँ मेरे सत्व को! मैं पूछता हूँ मेरे हृदय से! दूसरों को तो पूछ् ही क्या? यह वेदना मेरी अपनी है... यह प्रश्न
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