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यही है जिंदगी प्रिय, यह अप्रिय! यह इष्ट, यह अनिष्ट... क्षण-क्षण मन में असंख्य द्वन्द्व उछलते रहते हैं, ऐसी मनःस्थिति में कैसे मानूँ कि 'मैं विरागी हूँ, विरक्त हूँ!'
योगीजीवन का प्रारम्भ ही 'भवोद्वेग' से होता है। सहज भवोद्वेग... संसार के प्रति स्वाभाविक उद्वेग! भवोद्वेग ही वैराग्य है। __परमात्मा से प्रतिदिन प्रार्थना करता हूँ - प्रार्थना का सूत्र बोलता हूँ कि 'हे भगवंत, मेरे हृदय में वैराग्य पैदा हो। मैं विरतिधर तो हूँ, परंतु मुझे विरक्ति चाहिए, आपकी परम कृपा से मुझे विरक्ति की प्राप्ति हो।'
साधुजीवन का आन्तर-आनंद विरक्ति में से पैदा होता है। विरक्ति को सुरक्षित रखना अति आवश्यक है | चाहे सब कुछ लुट जाए, चाहे सब स्नेहीस्वजन चले जाए, यदि विरक्ति सुरक्षित है तो सब कुछ सुरक्षित है। इस विरक्ति की सुरक्षा के लिये ही तो धर्मग्रन्थों का स्वाध्याय और परमात्मभक्ति वगैरह आराधनाएँ बतायी गई हैं। तपश्चर्या और सेवा-सुश्रूषा भी इसी हेतु से बतायी गई है। विरक्ति को सुरक्षित रखने के ये सारे रचनात्मक उपाय हैं | जो साधक इन उपायों का अनादर करता है, वह विरक्ति को गवाँ देता है।
साधु हो या गृहस्थ हो, जिस किसी को आन्तर शांति, प्रसन्नता और आत्मा की दिव्य अनुभूति करनी है, उसको हृदय में विरक्ति स्थापित करनी ही पड़ेगी। विरक्त हृदय ही इस भीषण संसार में स्वस्थ रह सकता है। द्वन्द्वों से भरी दुनिया में निर्द्वन्द्व रह सकता है। ___ 'विरति' 'विरक्ति' में सहायक है। विरतिधर मनुष्य के लिए विरक्ति की साधना सरल बन सकती है, परन्तु विरति ही विरक्ति नहीं है। हमारा पापत्याग पापराग मिटाने हेतु होना चाहिए | पापत्याग करने वालों की दुनिया इज्जत करती है, पापत्यागी मनुष्य का दुनिया में यश फैलता है। यदि यश की ऐषणा पापत्यागी मनुष्य के हृदय में जाग्रत हो गई... तो पापराग बना रहेगा... पापत्याग करने पर भी!
हृदय विरक्ति के अमृत से सदैव अभिसिंचित रहे... यही एक कामना शेष
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