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यही है जिंदगी
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२५. संवादिता की शहनाई
क्या व्यर्थ विवादों में ही जीवनयात्रा समाप्त हो जाएगी ? बाह्य जगत में विवाद और आन्तर जगत में भी विवाद ! संवाद कहाँ है ? बाह्य जगत में संवादिता हो ही नहीं सकती। जगत यानी विसंवाद ! सर्वत्र विवाद के ढोल बज रहे हैं और असंख्य मनुष्य उस ढोल के साथ नाच रहे हैं!
हर बात में विवाद ! विवाद करना और विजयी होना ... दूसरों को पराजित करना... बस, इसी में आनंद, इसी में सन्तोष ! खैर, दुनिया में ऐसा चलता आया है और चलता रहेगा, परन्तु धर्मक्षेत्र में भी वैसी ही विकृत मनोवृत्ति ? धर्मशास्त्रों को लेकर भी विवाद ? कब तक ये सारे विवाद होते रहेंगे? कभी अंत नहीं आएगा? एक विवाद मिटा कि दूसरा विवाद पैदा हुआ ही समझो! क्या मनुष्य-स्वभाव ही ऐसा है ? संवाद मानव स्वभाव नहीं है ?
कभी किसी को कहते हुए सुनता हूँ : 'यह विवाद सुलझ जाए तो समाज में शांति स्थापित हो जाए... परिवार में शांति हो जाए...' मुझे हँसी आती है। जिसको विवाद में ही मजा आता है, वे संवाद पसंद नहीं करेंगे।
'वाद-प्रतिवाद से तत्त्वनिर्णय नहीं हो सकता है,' ऐसा बोलनेवालों को भी वाद-प्रतिवाद से ही तत्त्वनिर्णय करने की जिद करते हुए देखता हूँ, तब मन स्तब्ध हो जाता है। वे बेचारे तत्त्व ही नहीं समझते हैं, फिर निर्णय किसका करेंगे? अतत्त्व को तत्त्व समझकर निरन्तर विवाद करते रहते हैं । 'अहं' को पुष्ट करते हुए घोर अशांति के शिकार बन जाते हैं ।
विवाद में अशांति है,
संवाद में शांति है !
किसको समझाऊँ यह परम सत्य ? हाँ, मेरा मन मान ले यह सत्य, तो भी बहुत है । है । मेरा मन भी तो विवादप्रिय बन गया है! संवाद को विवाद से स्थापित करने चला हूँ! कैसे संभव होगा? संवाद के लिए विवाद करना आवश्यक नहीं है । दूसरों का विवाद मिटाने के लिए भी विवाद जरूरी नहीं है!
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अंतःकरण भी कैसा विवादग्रस्त हो गया है... अंतर्वृत्तियों का विवाद ! अंतर्द्वद्वों का विवाद ! कैसे समरस की प्राप्ति करूँ ? विवादग्रस्त अंतःकरण में परमात्मा की प्रतिष्ठा नहीं होती है । परमात्मा की प्रतिष्ठा होती है, संवादिता