________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
यही है जिंदगी
५४
२७. स्वमान सम्हालिए
उसने मुझे एक दिन कहा : 'महाराज साहब, मैं अभिमान करना पसन्द नहीं करता, परन्तु स्वमान के लिए तो प्राण भी दे सकता हूँ।'
मैंने उसको उस समय कोई प्रत्युत्तर नहीं दिया था, परन्तु उसके दो शब्द 'स्वमान' और 'अभिमान' विशेष अर्थ में मुझे याद रह गये । याद रह गये इतना ही नहीं, मेरे चिन्तन के विषय भी बन गये! 'स्वमान' उपादेय कैसे? 'अभिमान' त्याज्य कैसे?
एक दूसरा महानुभाव मिला, कुछ पढ़ा-लिखा था, उसने बात-बात में मुझसे कहा : 'महाराजश्री, मैं स्वाभिमानी आदमी हूँ। इन्सान को स्वाभिमानी होना चाहिए!
पहले व्यक्ति ने 'स्वमान' उपादेय बताया, दूसरे व्यक्ति ने 'स्वाभिमान' उपादेय बताया, कर्तव्यरूप बताया। मान और अभिमान त्याज्य, स्वमान और स्वाभिमान उपादेय! ऐसी मान्यता कैसे बनी होगी? ज्ञानी पुरुषों ने तो 'मान' को 'कषाय' कहा है और कषाय को हेय यानी त्याज्य बताया है। मान-कषाय "स्वमान' का या 'स्वाभिमान' का मुखौटा पहन ले, तो क्या वह 'कषाय' मिट जाता है? उसमें हेयता नहीं रहती?
अज्ञानी लोगों की बात छोड़ो, मैने अच्छे-अच्छे विद्वानों से सुना है : 'स्वमान तो सभी को प्यारा होता है! हम अपमानित होना पसन्द नहीं करते।' जब स्वमान के साथ रहना सब पसन्द करते हैं, तब स्वमान के विषय में गंभीरता से सोचना आवश्यक बन गया मेरे लिये!
मान और अभिमान के आगे 'स्व' जोड़ने से, स्व-मान, स्व-अभिमान! क्या पता, कैसा जादू हो जाता है कि हेय उपादेय बन जाता है! अप्रशस्त प्रशस्त बन जाता है! यह जादू 'स्व' का है! 'स्व' का अर्थ होता है अपना! स्वमान = अपना मान! मान और अपना मान, इनमें शाब्दिक और आर्थिक क्या फासला है? मैंने बहुत सोचा, चित्र स्पष्ट नहीं हुआ | बहुत दिनों तक अस्पष्ट बना रहा इस विषय में।
कल रात को अचानक एक आवाज सुनाई दीः 'देहाभिमान छोड़, आत्माभिमानी बन!' आवाज कहाँ से आयी... कौन बोला... मालूम नहीं पड़ा, परन्तु बात महत्त्वपूर्ण थी। 'स्व' का भेद खुल गया । 'स्व' यानी आत्मा! स्वमान = आत्मा
For Private And Personal Use Only