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यही है जिंदगी
२०. श्रमण जीवन की सार्थकता 3
मैं संसार के सर्व जीवों को क्षमा देता हूँ, निर्वैर बनता हूँ, संसार के सब जीव, मुझे क्षमादान दो! मैं आप सबसे क्षमायाचना करता हूँ। आप सब मेरे मित्र हैं, मुझे किसी से भी शत्रुता नहीं है।
आप सब जीवात्माएँ! भूल जाओ कि आपने मेरे प्रति अपराध किए हैं। अपराध आपने नहीं किए हैं, कर्मों ने आपसे अपराध करवाए हैं। आप निर्दोष हैं। आपके स्वभाव में ही नहीं है अपराध करना।
दूसरी बात : मेरे पापकर्मों के उदय के बिना मेरा कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता | किसी से यदि मेरा कुछ बिगड़ता है तो वह मेरे ही पापकर्मों की वजह से! जब मैं इन जिनवचन को नहीं जानता था उस समय मैंने दुनिया के जीवों को ही अपराधी माने, उनके प्रति शत्रता की, वैर-विरोध किया। मैंने भी उन जीवों का अहित सोचा, अहित किया। इसका परिणाम भी मैंने देख लिया । परिणाम विपरीत ही आया है। मेरा ही अहित हुआ... मेरे ही तन-मन संतप्त बने, जो पापकर्मों का बंधन हुआ होगा वह तो सर्वज्ञ जाने | क्या पाया मैंने? बदला लेने की वृत्ति का क्षणिक संतोष! ___ अज्ञानदशा में मैंने, जो जीव क्षमा माँगने आए, उन्हें क्षमा नहीं दी। मैंने घृणा की, तिरस्कार किया। अब मैं उस शत्रुता को हृदय से निकाल देता हूँ| सब जीवों को क्षमा प्रदान करता हूँ। इतना ही नहीं, सब जीवों से विनम्र बनकर क्षमायाचना करता हूँ। क्षमा की भिक्षा माँगता हूँ। मैं मेरी तरफ से सर्वजीवमैत्री घोषित करता हूँ। इसलिए सर्व जीवों के प्रति स्नेह करने लगा हूँ | मैं किसी का भी अहित नहीं करूँगा | जो सबके लिए हितकारी होगा, वही करूँगा। स्नेही का, मित्र का अहित कैसे हो सकता है? ___ ओहो! मेरा परम सौभाग्य है कि मुझे सर्व जीवों के साथ मैत्रीपूर्ण जीवन जीने का पुण्य अवसर मिल गया है! मुझे श्रमण जीवन मिला है। सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवों की भी रक्षा करने का जीवन! पृथ्वी-पानी के जीव, अग्नि-वायु के जीव और वनस्पति के जीव, सब जीवों को मैं अभयदान दे सका हूँ। मेरे सुख-स्वार्थ के लिए किसी भी जीव की न तो हिंसा करनी है, न ही किसी जीव को पीड़ा पहुँचानी है!
मेरे ख्याल से श्रमण जीवन के अलावा किसी भी जीवन में सर्व जीवों के
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