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यही है जिंदगी
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१९. सब कुछ 'स्व' में है
आशा ही संसार है। अपेक्षा ही संसार है । सिर्फ आशा और अपेक्षा ! कोई आशा पूर्ण नहीं होती, कोई अपेक्षा पूर्ण नहीं होती इस संसार में! आशा पूर्ण होती हुई दिखती है... जैसे दूर क्षितिज पर पृथ्वी को आकाश मिलता हुआ दिखता है... परन्तु वह केवल दिखावा ही होता है .... वास्तविकता कुछ नहीं! संसार में ऐसा ही होता है न! केवल दिखावा है... दूर से सब सुन्दर दिखता है... पास जाने पर सब कुरूप लगता है। दूर से जो नन्दनवन दिखता है, निकट जाने पर वही बीहड़ वन दिखता है। संसार का यह स्वरूप उन महाकवि की समझ में आ गया होगा, इसलिए उन्होंने गाया है :
' आशा औरन की क्या कीजे...
ज्ञानसुधारस पीजे...'
अपनी आत्मा से भिन्न दूसरे किसी भी पदार्थ की आशा करने जैसी नहीं है । आशा ही संसार है, जिसने करोड़ों ... असंख्य... अनंत जीवों को धोखा दिया है। सांसारिक जीवन ही एक धोखा है । क्या पाना है ऐसे संसार से ? कुछ नहीं ।
मृगजल ! दूर से पानी दिखता है... पास जाने पर धूल ! दूर से संसार में सुख दिखते हैं... पास जाने पर दुःख ! तब तक आकर्षण बना रहता है संसार के सुखों का, जब तक वे सुख हमें मिल नहीं जाये | जो सुख हमारे पास हैं, हम उन सुखों का मूल्यांकन नहीं करते। जो सुख हमारे पास नहीं हैं, उन सुखों के प्रति हमें आकर्षण होता है। इसी प्रकार हमारा जीवन व्यतीत होता जा रहा है।
कब दृष्टि खुलेगी? कब यह वास्तविकता आत्मसात् होगी ? कब इस वास्तविकता को स्वीकार करेगा मन? इसको स्वीकार किये बिना मन शांति का अनुभव नहीं कर सकता। स्थिरता के बिना शांति नहीं टिक सकती । संसार की हर परिस्थिति को स्वीकार करके ही जीवन जीना होगा ।
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संसार की वास्तविकता का प्रतिदिन चिंतन करने का जिनेश्वरों का उपदेश कितना यथार्थ है! परन्तु संसार के अवास्तविक सुख - दुःखों की कल्पना-जाल में हम उलझे हुए हैं। इस उलझन में हमारी धर्म आराधना भी उलझ गयी है। धर्म आराधना का वास्तविक परिणाम हम नहीं पा रहे हैं।