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यही है जिंदगी
४७ शादी करते-करते हस्तमिलाप के समय केवलज्ञान! कितना भाग्यशाली वो गुणसागर! शुद्ध भावों के बल पर उसने केवलज्ञान पा लिया था! और कई वर्षों से संयमधर्म की पालना करने पर भी केवलज्ञान नहीं! केवलज्ञान तो नहीं सही, पूरा श्रुतज्ञान भी नहीं! मन तड़पता है... बिलखता है। जैसे शुद्ध भाव उस गुणसागर के थे, क्या वैसे शुद्ध भाव मेरे चित्त में नहीं आ सकते? क्यों ज्ञानी पुरुषों ने उन शुद्ध भावों का वर्णन नहीं किया? यदि किया है वर्णन, तो उस वर्णन के अनुसार शुद्ध भाव आने पर भी 'केवलज्ञान' क्यों नहीं प्रगट हो रहा? ज्ञानी कहते हैं : 'उनके जैसे तीव्र शुद्ध भाव आएँगे, तब होगा केवलज्ञान!' वो तीव्रता कैसी है?
मुनिहत्या करने वाले राजा को उसी दिन केवलज्ञान! और मैं मुनिसेवा करने वाला... वर्षों से मुनिसेवा करने वाला... मुझे केवलज्ञान नहीं? उस राजा ने घोर पश्चात्ताप किया था इसलिए केवलज्ञान मिला, ठीक है, तो मुनिसेवा की अच्छी अनुमोदना करने वाले को केवलज्ञान क्यों नहीं? मन बेचैन बन जाता है। मृत्यु के बाद की कल्पना अस्पष्ट ही बनी रहती है। कौन यह बेचैनी मिटाएगा? कोई ऐसे दिव्यज्ञानी महापुरुष नहीं है आज इस विश्व में... किसको जाकर पूछ? किससे मेरे मन का समाधान पाऊँ?
क्षितिज पर जब संध्या को ढलती हुई देखता हूँ... जीवन-संध्या ढलती हुई दिखती है। अनंत अनागत में कोई मार्ग नहीं दिखता। अज्ञात भविष्य में खो जाने की कल्पना कितनी डरावनी है! अज्ञात महासत्ता के हाथों में जकड़ा हुआ मैं कितना विवश हूँ! कितना परवश हूँ | मेरी यह विवशता... परवशता... मुझे विक्षुब्ध कर रही है।
इन्तजार करता हूँ... कब मेरा जन्म, जीवन और मृत्यु का अनादिचक्र स्थिर हो जाए... और तो क्या कर सकता हूँ?
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