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यही है जिंदगी
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अनंत आकाश में कोई वीथी नहीं है, कोई जनपथ नहीं है... कि जिस पर दौड़ता हुआ... सिद्धशिला पर पहुँच जाऊँ । जो-जो आत्माएँ वहाँ गई, उन्होंने अपने पदचिह्न भी नहीं छोड़े... अन्यथा उन पदचिह्नों के सहारे धीरे-धीरे भी चलता हुआ... वहाँ मैं पहुँच जाता ! मैं अभ्राकुल आकाश की ओर देखता ही रहा... बादल हट जाए और ऊपर सिद्धशिला दिखाई दे तो ...? मन मूर्खतापूर्ण विकल्प करने लगा...। 'सिद्धे सरणं पवज्जामि' मुँह से सहसा निकल गया। 'हे अनंत सिद्ध भगवंत! मुझे आप अपनी शरण में ले लीजिए... आप मुझे अपने पास बुला लीजिए...।'
वे लोग ही वहाँ जा पाते हैं जो साधक पुरुष होते हैं, जिनके हृदय में धर्म होता है। इसलिए मुझे उन साधकों की शरण लेनी चाहिए। उनके हृदय में जो धर्म है, उस धर्म की शरण लेनी चाहिए... ।
हृदय में अव्यक्त अपूर्वानन्द उभर आया... हृदय गद्गद हो गया, आँखें अश्रुओं से भर आयीं... मनसा - वचसा - कायेन मैं उन शरण्य तत्त्वों के प्रति समर्पित हो गया...! वह रात मैं कभी नहीं भूल सकता...।
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