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यही है जिंदगी समझ कर पूर्ण नहीं करते हैं, जो लोग मेरी दृष्टि से धर्मविरुद्ध आचरण करते हैं... उन सब के प्रति तिरस्कार, घृणा इत्यादि मैं कर सकता हूँ... फिर भी मैं निष्पाप हूँ... मैंने पुण्यबंध किया, मैंने धर्मरक्षा की... ऐसा मैं आपको भी कबूल करवाता हूँ। ऐसे लोगों को क्षमा नहीं देनी चाहिए, दंड ही देना चाहिए - ऐसा प्रतिपादन कर सकता हूँ - शास्त्रों के नाम पर।
जिस मनुष्य के प्रति तिरस्कार पैदा हो गया है, वह मनुष्य क्षमा माँगने आएगा तो भी मैं क्षमादान नहीं दूंगा। तिरस्कार क्षमादान करने ही नहीं देता।
प्रति वर्ष संवत्सरी पर्व आता है - हृदय में अहंकार और तिरस्कार सुरक्षित रखते हुए, क्षमा की लेन-देन का ड्रामा (नाटक) करता आया हूँ... व्यवहारधर्म के पालन में आत्मवंचना का पाप करता आया हूँ। ___ कौन बतायेगा - अहंकार और तिरस्कार की इन दुष्ट वासनाओं से मुक्त होने के उपाय? हाँ, आपको उपाय जानने हैं तो मैं बताऊँगा... परंतु मुझे कौन बतायेगा? इन दो वासनाओं से मुक्त हुए बिना क्षमाधर्म के आदान-प्रदान का यह महापर्व मेरे लिए आत्मशुद्धि का पर्व नहीं बन सकता - भले मैं चौथ की संवत्सरी करूँ या पंचमी की करूँ!
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