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यही है जिंदगी
२७ मैंने सुना कि उनको सूली पर चढ़ाने की सजा हुई है, मैंने अरिहंत परमात्मा की शरण ले ली। संसार में ऐसा सब कुछ घट सकता है, मैं जानती थी। मुझे जिनवचन पर पूर्ण आस्था थी। मैंने उनकी (सुदर्शन की) समता-समाधि के लिए परमात्मा से प्रार्थना की और मैं अरिहंत परमात्मा के ध्यान में लीन हो गई।' ___ मैंने बीच में ही पूछ लिया : ‘ऐसे संकट में मन ध्यानमग्न कैसे हो सका? ऐसी स्थिति में तो मन चंचल हो जाता है।'
'अश्रद्धा में से चंचलता पैदा होती है । अज्ञानता में से अस्थिरता जन्म लेती है। मुझे जिनवचन पर ज्ञानमूलक श्रद्धा है। इनके (सुदर्शन के) सहवास से मेरी वह श्रद्धा पुष्ट हुई है। अब तो... वह श्रद्धा सुदृढ़ हो गई! अरिहंत परमात्मा के अचिन्त्य प्रभाव से हमारे सारे संकट दूर हो गए, सारे नगर के लोगों को धर्म पर, धर्म के प्रभाव पर श्रद्धा हो गई... और क्या चाहिए?' मनोरमा के मुख पर साक्षात् धर्म-तेज चमक रहा था। धर्म की अचिन्त्य-अनंत शक्ति पर अखंड श्रद्धा मनुष्य को कल्पनातीत आपत्ति में भी धीरता और स्थिरता प्रदान करती है, यह परम सत्य मैंने पाया और मन से उस दंपती को अभिवादन कर वापस लौट आया।
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