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यही है जिंदगी खड़ी थी... मुनिवर को मिष्टान्न लेने का आग्रह कर रही थी, परंतु मुनिराज की आँखें जमीन पर ही स्थिर थीं। सेठानी के सामने भी उन्होंने नहीं देखा... मिठाई तो ली ही नहीं। मुझे शुरू में तो आश्चर्य हुआ कि ऐसी रूपवती नारी सामने होते हुए भी यह मुनि उसको देखते क्यों नहीं? परंतु तुरंत ही उन महात्मा के प्रति मेरे हृदय में प्रमोद जाग्रत हुआ। मुनि की श्रेष्ठता और मेरी अधमता का विचार आया। मैं एक नटपुत्री के पीछे पागल बनकर भटक रहा हूँ... मैंने माता-पिता का त्याग किया, कुलमर्यादा का भंग किया, सुख-वैभव को छोड़ दिया... एक रूपवती के लिए! और ये महात्मा... यौवन होते हुए भी उनमें उन्माद नहीं, रूप होते हुए भी गर्व नहीं... कैसा संयम!'
मेरे पैर नृत्य कर रहे थे, घुघरू बज रहे थे... परंतु मैं देख रहा था उस दृश्य को। मेरा राग मंद होता गया, अज्ञानता के बादल हट गए.. मैं आत्मसौंदर्य के विचार में चढ़ गया । वह दृश्य हट गया... आत्मा ही आत्मा की दृष्टा बन गई। मैं अंतर्मुखी बन गया। मेरी आत्मचेतना जाग्रत होने लगी... मैंने अपूर्व समतासुख का अनुभव किया...| रागदशा विलीन हो गई, वीतरागता प्रकट हो गई। अज्ञानता का घोर अंधकार दूर हो गया, केवलज्ञान का पूर्ण प्रकाश प्रकट हो गया।'
नट को नाचते-नाचते केवलज्ञान हो गया! राग का पात्र सामने होते हुए भी इलाचीकुमार वीतराग हो गए! दृश्य को देखने की दिव्य दृष्टि की यह करामात थी। क्षणभर मुझे ग्लानि हो आयी... 'नट को नाचते-नाचते केवलज्ञान, मुझे नहीं? मैं तो साधक हूँ... मोक्षमार्ग का आराधक हूँ... मैंने भी ऐसे कई दृश्य देखे हैं... परंतु मुझे केवलज्ञान क्यों नहीं?'
समाधान हो गया! 'दृश्य है परंतु दिव्य दृष्टि नहीं है। दृष्टा हूँ परंतु दर्शन की कला नहीं पाई है। फिर कैसे वीतराग बनूँ? कैसे केवलज्ञानी बनूँ?
जब तक दृश्य का दर्शन करने की दिव्य दृष्टि नहीं खुलेगी तब तक वीतरागता नहीं मिलेगी, पूर्ण ज्ञान प्रकट नहीं होगा।' चिंतन के आलोक में महर्षि इलाचीकुमार से हुए संपर्क ने दृश्य, दृष्टा और दृष्टि का दिव्य ज्ञान प्रदान किया।
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