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१८
यही है जिंदगी
ब९. केवल देखना है... केवल जानना है!
सिर्फ ज्ञाता, सिर्फ दृष्टा कब बनूँगा? जानने में राग-द्वेष न हों, देखने में राग-द्वेष न हों, ऐसी आत्मदशा कब प्राप्त होगी? यह असंभव बात तो नहीं है! क्योंकि ऐसा जानने को मिला है कि अनंत आत्माएँ ऐसी हो गई हैं कि जो केवल ज्ञाता और दृष्टा थी। वर्तमान में भी एक प्रदेश ऐसा है - 'महाविदेह' उसका नाम है। शास्त्रों में, प्राचीनतम ग्रंथों में 'महाविदेह' क्षेत्र का नाम और वहाँ की भौगोलिक, शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक परिस्थितियों का वर्णन भी पढ़ने को मिला है। वहाँ उस 'महाविदेह' के प्रदेश में भी ऐसे लाखों पुरुष हैं जो केवल ज्ञाता और दृष्टा हैं। उनके ज्ञान में, उनके दर्शन में नहीं होता है राग, नहीं होता है द्वेष ।
यह जानता हूँ कि मेरी आत्मा अनंत-अनंत जन्मों से राग और द्वेष करती आयी है। राग करना, द्वेष करना मेरे लिए सहज और स्वाभाविक सा हो गया है। कभी ऐसा विचार आ जाता है - राग भी न करूँ और द्वेष भी न करूँ, तो करूँ क्या? मन के लिए तीसरा भाव कौन-सा है? परंतु इसका समाधान तो कभी का मिल गया है। बिना राग किए, मैंने कुछ क्षणों के लिए देखा है - जाना भी है। वैसे बिना द्वेष किए भी मैंने देखने का और जानने का अनुभव किया है। परंतु कुछ क्षणों के लिए ही! ऐसा अनुभव दीर्घकाल तक नहीं टिकता है। राग-द्वेष आ ही जाते हैं।
'केवल ज्ञाता और दृष्टा बनने में नीरसता नहीं है, निरानन्द नहीं है, बल्कि पूर्णानन्द की अनुभूति वहाँ होती है। संपूर्ण रसानुभूति वहाँ होती है। उस सर्वोच्च आत्मस्थिति में ही यह अनुभूति संभव है।' मैंने जब इस परम सत्य को जाना, मेरा मन तड़प उठा - 'मैं कब ऐसे पूर्णानंद की अनुभूति करूँगा? मुझे पूर्णानंद ही चाहिए। ऐसा आनंद जो कभी अपूर्ण न हो! कभी खाली न हो! मुझे ऐसी रसानुभूति चाहिए जो कभी नीरसता को मेरे पास आने भी न दे, मैं स्वयं रसमय बन जाऊँ।' ___ अतीत में भी ऐसे पूर्ण ज्ञाता, पूर्ण दृष्टा उत्तम पुरुष हो गए हैं, जिन्होंने अतीत और वर्तमान के साथ अनागत काल को भी देखा था, जाना था। उनका जो अनागत का दर्शन था, अनागत का ज्ञान था, वही आज हमारा वर्तमान है! वर्तमान में जो कुछ हो रहा है, हमारे लिए भले वह नया हो, उनकी ज्ञानदृष्टि
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