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यही है जिंदगी
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मन क्षुब्ध और चंचल बन गया । नहीं, आवेश और चुनौती को झलकने नहीं देना है ! तो क्या बाहर की छेड़छाड़ अथवा कटुता की अवज्ञा कर उसके सम्मुख सर्वथा मौन रहना है ? मानवजीवन... अति अल्पकालीन मानवजीवन का चरम उद्देश्य क्या है ? शिव, अचल, अनंत... अव्याबाध सिद्धिगति को प्राप्त करना, यही न?
तब तो मुझे भीतर में ही देखना होगा । भीतर में जो शाश्वत बिराजमान है उसका लगातार सन्निधान करना होगा । वहाँ नहीं है निर्बलता, नहीं है शोषण! वहाँ नहीं है आपाधापी, नहीं है छीना-झपटी ! वहाँ है बाह्य जगत से मुक्त परमानन्द का अनंत अनुभव !
रात की गहन और गम्भीर शांति में एक प्रच्छन्न परंतु मृदु ... कोमल स्वर हवा में गूँजता हुआ सुनायी देता है: 'आत्मन्! अमिट उल्लास अपने हृदय में भरकर आगे चलो। संसार ऐसा ही है... दुःखरूप ! अनादि और अनंत है। संसार का कभी भी अंत नहीं, तुम्हारा खुद का अंत करो! तुम्हारे सांसारिक विरूप का अंत करो। तुम्हारे विशुद्ध स्वरूप का प्रारंभ करो... वह अनंत होगा । मोक्षमार्ग की साधना व्यक्तिनिष्ठ साधना है, समष्टिगत साधना नहीं । तुम्हें अपना शुद्ध आत्मस्वरूप पाना है ? तो बाह्य - आन्तर विसंवादों से मुक्त रहो । जीवन में संवादिता स्थापित करो । संघर्ष नहीं, शांति को जीवन की परिभाषा बनाओ।'
कैसी दिव्य ध्वनि!! आनंद की एक अप्रतिहत धारा में मेरा सारा वैषम्य बह गया। हृदय आश्वस्त हो गया... और न जाने कब मैं गहरी नींद में सो गया ।
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