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यही है जिंदगी ___ मन के क्रोध और लोभ उपशान्त होने लगे | मन में उपशम-रस प्रवाहित हो गया। किसी भी जीवात्मा के प्रति रोष नहीं, रिस नहीं। किसी जड़ पदार्थ का लोभ नहीं, तृष्णा नहीं। चिलातीपुत्र विवेकी बन गया... विवेक-ज्ञान का प्रदीप प्रज्वलित हो गया। देह-आत्मा का भेदज्ञान हो गया... 'मैं आत्मा हूँ... अजर... अमर... शाश्वत! यह देह मैं नहीं। आत्मभूमि के आस्रव-द्वार बंद हो गए, जिन द्वारों से अनंत अनंत कर्मों का पानी आत्मभूमि में आता था। कर्मों का प्रवाह रुक गया। 'संवर' हो गया। शुद्ध आत्मस्वरूप का ध्यान केवल धर्मध्यान बनकर मिट नहीं गया, वह ध्यान 'शुक्ल' बन गया | ध्यान शुक्ल बना, आत्मा उज्ज्वल बनी।
गले में लटक रहा था सुषमा का सिर, हाथ में थी खून से सनी हुई तलवार... और चिलातीपुत्र को हो गया केवलज्ञान! वे सर्वज्ञ बन गए, वीतराग बन गए | जिस दिन चोरी... अपहरण और हत्या जैसे घोर पाप किए... उसी दिन वीतरागता और सर्वज्ञता प्राप्त कर ली! एक ही 'टेक्निक' थी वहाँ । धर्मध्यान में से शुक्लध्यान में प्रवेश हो गया! यदि धर्मध्यान के महल में छिपा हुआ वह शुक्लध्यान का गुप्त मार्ग मिल जाय... तो सर्वज्ञता दूर नहीं, वीतरागता अप्राप्य नहीं।
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