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यही है जिंदगी
कितना घोर पापविचार करता है वह डाकू? अपनी वासना को तृप्त करने के लिए दूसरे जीव की हत्या! जिसको वह चाहता है... जिससे वह खूब प्यार करता है... उसकी हत्या! हाँ, कर दी उसने सुषमा की हत्या! सुषमा का सिर बाँध लिया अपने गले से...! खून से उसके कपड़े रंग गए.. वह तीव्र गति से भागा... नदी का किनारा आया, किनारे पर वृक्षों की घटा में जाकर बैठा। सुषमा के प्राणहीन... चेतनाहीन चेहरे को देखता है... हँसता है... रोता है...।
वृक्षघटा में से बाहर निकला और नदी के तट पर चलने लगा। तट पर एक जगह उसने एक महात्मा को ध्यानस्थ अवस्था में खड़े हुए देखा। चिलातीपुत्र उनके पास गया... महात्मा की शांत, प्रशांत और प्रशमरसनिमग्न मुखमुद्रा को देखा... वह देखता ही रहा। खड़ा रहा... हाथ में खून से सनी हुई तलवार और गले में लटकता हुआ सुषमा का सिर... वह खड़ा रहा। महात्मा ने ध्यान पूर्ण किया... कमल से नेत्रों से चिलातीपुत्र को देखा...। चिलाती ने प्रश्न कियाः 'कौन हो तुम? यहाँ क्यों खड़े हो?' ___ मुनि के मुख पर थोड़ी-सी मुस्कराहट... और मुख से 'धर्मलाभ' के आशीर्वाद! मुनि ने चिलाती के प्रश्न का प्रत्युत्तर नहीं दिया... चिलाती के मन की उलझनों का... समस्याओं का वे प्रत्युत्तर देना चाहते थे... उन्होंने कहा : 'चिलातीपुत्र! उपशम... विवेक... संवर ।' । । इतना ही कहकर वे महामुनि आकाशमार्ग से चले गए.. चिलातीपुत्र आकाश की ओर देखता ही रहा... जब तक मुनि दिखते रहे... देखता ही रहा... जब मुनिराज अदृश्य बन गए, चिलातीपुत्र मुनिराज की मधुर स्मृति में डूब गया। उनकी प्रशांत मुखमुद्रा... करुणामय लोचन और मधु से भी ज्यादा मधुर उनके तीन शब्द : उपशम, विवेक, संवर! मुनि और मुनि के वचनों में
वह डाकू खो गया। बाह्य दुनिया से मुक्त हो गया....
रौद्रध्यान चला गया, आर्तध्यान चला गया... धर्मध्यान आ गया । जो गया, स्वाभाविक गया... जो आया, स्वाभाविक आया... सुषमा की सूरत विस्मृत हो गई, मुनि की मूरत मन पर छा गई। मन से अशांति और उद्वेग दूर होते गए, रोष और विषाद विलीन होते गए... मन शांत बनता जाता है, हल्का बनता जाता है, प्रसन्न और निरुद्वेग बनता जाता है...। प्रकृति भी प्रशांत थी। नदियों का कलकल बहता नीर और मलयाचल से आता मंदमंद सुगंध समीर... चिलातीपुत्र की धर्मध्यान की धारा में सहायक बन रहे थे।
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