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પરિચ્છેદ
दुसाधु- व्यधिार
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कीया है के " नीम हकीम खतरये जान, नीम मुल्ला खतरये इमान !" यानी आधा हकीम जानको जोखममें डाल देता हय, और अर्धदग्ध धर्मगुरु धर्मका नाश करनेवाला होता हय. दुर्भागी भारतवर्ष में इस कहावतकी सत्यताका हम आजकल प्रत्यक्ष अनुभव कर रहे हयें. साधु नामधारी शयतान अयसे दांभिक और गलकट्टे होते हयें के परमात्मा बचावे ! अनेक प्रकार के पाखंडोंका विस्तार करके अज्ञान पुरुष वर्ग और भाविक स्त्रीवर्गको वो भ्रममें डाल देते हयें, और उन्के धन, शील, तथा सर्वस्वका हरण करके स्वयं महात्मा बने अमनचमन उडाते हयें. सिर्फ इतना ही नहीं, वर्ना साधु-अहिंसा परमो धर्मका प्रतिपादन करनेवाले साधु-मनुष्य हिंसा और स्त्रीहत्या करनेको तो अपना परमधर्म मानते हयेंकहिये महाशय ! असे साधुओंको आर्यावर्त्त में होना क्या आर्यावर्त्त के उदका चिह्न हय ? म अयसेही एक सयतान साधुका चेला था, और अपनी अज्ञानावस्थामें शयतान गुरुकी आज्ञानुसार मयें खुद अयसे कनिष्ट कर्म करता था - मगर जब आंख खुली तो अयसे कर्मों पर तिरस्कार तथा धिक्कार होने लगा. गुरु शिष्य के संबंधका तोड डाला और पवित्रता में जीवनको व्यतीत करके जनसमाजको अयसें साधुओंके कपट जालसे बचनेका मार्ग दिखला देनेका निश्चय कर लिया. मोरी सर्व महाशयाओंका यही प्रार्थना हय के किसी साधुमें विश्वास करते समय पात्र अपात्रका विचार करो, अंधश्रद्धालु न बनो, और विना कारण दीन करके धनका नाश न करो. अपात्रको दान देनेसे मनुष्य पाप भागी होता हय, ये क्या आप नहीं जानते ? मगर आजकल बहुधा रेशम● की गदी उपर बटने वाले हाथी की स्वारी करनेवाले, व्यभिचारमें रत रहनेवाले, और वैभवोंके भोगनेवाले कुपात्र साधुओंकोही दान दिया जाता हय; और सच्चे साधुओं का वो दांभिक न होने के कारण अपमान किया जाता हय यही कहावत ठीक मालुम होती हय के ' भरेको सब कोइ भरता हय, और ग
बोंको देना हो तो तीनपाच करता हय. ' रुग्ण, अवयवहीन तथा साधनहीन किंवा सुशील कर्त्तव्यपरायणों का परिपालन करो उन्के दुःखों का क्षालन करों; परंतु पापी कलंकित साधुओंके संगका त्याग करो - उन्के दर्शनसे दूर रहो ; नहीं तो जिन्दगी की बरबादी होगी, और हर घरमें और सारे मुलकमें खाना खराबकी आबादी होगी. "