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छअनुस्सतिनिद्देसो सब्बे सत्ता आहारट्ठितिका" (खु० ५/१३५) ति आगतट्ठाने सङ्घारलोको वेदितब्बो। "सस्सतो लोको ति वा असस्सतो लोको ति वा" (दी० नि० १/१५७) ति आगतट्ठाने सत्तलोको।
"यावता चन्दिमसूरिया परिहरन्ति' दिसा भन्ति विरोचमाना। ताव सहस्सधा लोको एत्थ ते वत्तती वसो" ति॥
(म० नि० १/४०२) आगतढाने ओकासलोको।
तं पि भगवा सब्बथा अवेदि। तथा हिस्स "एको लोको सब्बे सत्ता आहारट्ठितिका। द्वे लोका नामं च रूपं च। तयो लोका तिस्सो वेदना। चत्तारो लोका चत्तारो आहारा। पञ्च लोका पञ्चपादानक्खन्धा। छ लोका छ अज्झत्तिकानि आयतनानि। सत्त लोका सत्तविआणट्ठितियो। अट्ठ लोका अट्ठ लोकधम्मा। नव लोका नव सत्तावासा। दस लोका दसायतनानि। द्वादस लोका द्वादसायतनानि। अट्ठारस लोका अट्ठारस धातुयो" (खु० ५/ १३५) ति अयं सङ्घारलोको पि सब्बथा विदितो।
यस्मा पनेस सब्बेसं पि सत्तानं आसयं जानाति, अनुसयं जानाति, चरितं जानाति, अधिमुत्तिं३ जानाति, अप्परजक्खे महारजक्खे, तिक्खिन्द्रिये मुदिन्द्रिये, स्वाकारे द्वाकारे, सुविज्ञापये दुविज्ञापये, भब्बे अभब्बे सत्ते जानाति, तस्मास्स सत्तलोको पि सब्बथा विदितो।
"एक लोक ऐसा है जिसमें सभी सत्त्व आहार पर निर्भर रहते हैं" (खु० नि० ५/१३५)-ऐसे स्थल (गद्यांश) में सङ्खारलोक (=संस्कारलोक) समझना चाहिये; "लोक शाश्वत है या लोक अशाश्वत है" (दी० १/१५७)-ऐसे स्थल में सत्तलोक (=सत्त्वलोक) समझना चाहिये।
जहाँ तक चन्द्रमा और सूर्य परिभ्रमण करते हैं, दिशायें प्रकाशित होती हुई चमकती हैं, उससे हजार गुना विशाल और प्रकाशित एक लोक, है, यहीं (तक) तुम्हारा वश है।" (म० नि० १/४०२)। - ऐसे स्थल में ओकासलोक (=अवकाशलोक) समझना चाहिये।
उसे भी भगवान् ने सब प्रकार से जान लिया था। वैसे ही उनने "एक लोक (है जहाँ) सभी सत्त्व आहार पर निर्भर हैं। दो लोक : नाम और रूप। तीन लोक : तीन वेदनाएँ। चार लोक : चार आहार। पाँच लोक : पाँच उपादानस्कन्ध। छह लोक : छह आध्यात्मिक आयतन। सात लोक : सात विज्ञानस्थितियाँ। आठ लोक : आठ लोकधर्म। नौ लोक : नौ सत्त्व आवास (-प्राणिलोक)। दस लोक : देसे आयतन। बारह लोक : बारह आयतन । अट्ठारह लोक : अट्ठारह धातुएँ" (खु० ५/१३५)-इस प्रकार इस संस्कारलोक को भी सब प्रकार से जान लिया था।
क्योंकि ये (बुद्ध) सभी सत्त्वों के आशय (=मूल प्रवृत्ति), अनुशय (=प्रकृति), चरित, १. यावता चन्दिमसूरिया परिहरन्ती ति। यत्तके ठाने चन्दिमसूरिया परिवत्तन्ति परिब्भमन्ति। २. चरितं ति। सुचरितदुच्चरितं।। ३. अधिमुत्ति अज्झासयधातु। सा दुविधा-हीनाधिमुत्ति, पणीताधिमुत्ती ति। ४. अप्परजं अक्खं एतेसं ति अप्परजक्खा, अप्पं वा रज पञ्जामये अक्खिम्हि एतेसं ति अप्परजक्खा,
अनुस्सदरागादिरजा सत्ता; ते अप्परजक्खे। एवं महारजक्खे ति।