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विसुद्धिमग्गो
सरितुं न सक्कोन्ति। तेसं हि अन्धानं विय इच्छितपदेसोक्कमनं नत्थि। यथा पन अन्धा यष्टुिं अमुञ्चित्वा व गच्छन्ति, एवं ते खन्धानं पटिपाटि अमुञ्चित्वा व सरन्ति। पकतिसावका खन्धपटिपाटिया पि अनुस्मरन्ति, चुतिपटिसन्धिवसेन पि सङ्कमन्ति । तथा असीति महासावका। द्विन्नं पन अग्गसावकानं खन्धपटिपाटिकिच्वं नत्थि। एकस्स अत्तभावस्स चुतिं दिस्वा पटिसन्धिं पस्सन्ति, पुन अपरस्स चुतिं दिस्वा पटिसन्धिं ति एवं चुतिपटिसन्धिवसेनेव सङ्कमन्ता गच्छन्ति। तथा पच्चेकबुद्धा।
१३. बुद्धानं पन नेव खन्धपटिपाटिकिच्चं, न चुतिपटिसन्धिवसेन सङ्कमनकिच्चं अत्थि। तेसं हि अनेकासु कप्पकोटीसु हेट्ठा वा उपरि वा यं यं ठानं इच्छन्ति, तं तं पाकंटमेव होति। तस्मा अनेका पि कप्पकोटियो पेय्यालपाळिं विय सङ्किपित्वा यं यं इच्छन्ति, तत्र तत्रेव
ओक्कमन्ता सीहोक्कन्तवसेन गच्छन्ति। एवं गच्छन्तानं च नेसं जाणं यथा नाम कतवालवेधपरिचयस्स सरभङ्गसदिसस्स धनुग्गहस्स खित्तो सरो अन्तरा रुक्खलतादीसु असज्जमानो लक्खे येव पतति, न सज्जति न विरज्झति, एवं अन्तरन्तरासु जातीसु न संज्जति न विरज्झति, असज्जमानं अविरज्झमानं इच्छितिच्छितट्टानं येव गण्हाति।
- १४. इमेसु च पन पुब्बेनिवासं अनुस्सरणसत्तेसु तित्थियानं पुब्बेनिवासदस्सनं खजुपनकप्पभासदिसं१ हुत्वा उपट्ठाति। पकतिसावकानं दीपप्पभासदिसं, महासावकानं (केवल) च्युति एवं प्रतिसन्धि के अनुसार अनुस्मरण करने की क्षमता नहीं होती। अन्धों के समान वे अभीष्ट स्थान पर (मन को) नहीं (ले) जा पाते, वैसे ही वे स्कन्धों के क्रम को न छोड़ते हुए ही स्मरण करते हैं। प्रकृतिश्रावक स्कन्धक्रम का भी अनुस्मरण करते हैं। एवं च्युति-प्रतिसन्धि के अनुसार भी आगे बढ़ते हैं। वैसे ही अस्सी महाश्रावक भी। किन्तु दो महाश्रावकों को स्कन्धक्रम की अपेक्षा नहीं होती। एक व्यक्ति (=आत्मभाव) की च्युति देखकर वे (उसकी) प्रतिसन्धि देख लेते हैं, पुन: दूसरे की प्रतिसन्धि देखकर च्युति की। यों, च्युति एवं प्रतिसन्धि के अनुसार आगे बढ़ते जाते हैं। वैसे ही प्रत्येकबुद्ध भी।
१३. किन्तु बुद्धों के न तो स्कन्ध-क्रम की अपेक्षा होती है, न च्युतिप्रतिसन्धि के अनुसार संक्रमण की। क्योंकि अनेक कोटि कल्पों में से, ऊपर या नीचे जिस जिस स्थान को वे चाहते हैं, उनके लिये वह वह प्रकट ही होता है। अत: अनेक कोटि कल्पों को 'पेय्याल पालि' के समान संक्षिप्त कर, जहाँ जहाँ चाहते हैं वहाँ-वहाँ सिंह के समान छलाँग (लम्बी कूद) लगाते हुए (मन को ले) जाते हैं। जैसे केश का वेध सीख चुका, शरभङ्ग (बौद्ध साहित्य में प्रसिद्ध एक धनुर्धर) के समान धनुर्धारी द्वारा छोड़ा बाण बीच में आये वृक्ष, लता आदि में न लगकर लक्ष्य पर ही गिरता है, न तो लक्ष्य से चूकता है, न विचलित होता है; वैसे ही यों जानने वालों का ज्ञान मध्यवर्ती जन्मों के विषय में न तो चूकता है, न विचलित होता है। न चूकते हुए, न विचलित होते हुए, अभीष्ट स्थान का ही ग्रहण करता है।
१४. पूर्वनिवास का अनुस्मरण करने वाले इन सत्त्वों में, तीर्थकों का पूर्वनिवास-दर्शन खद्योत (जुगनू) के प्रकाश के समान उपस्थित होता है। प्रकृतिश्रावकों का दीपक के प्रकाश के १. खजुपनकप्पभासदिसं ति। खजोतोभाससमं।