Book Title: Visuddhimaggo Part 02
Author(s): Dwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
Publisher: Bauddh Bharti

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Page 378
________________ अभिज्ञानसो ३५१ महाधातुनिधाने महाकस्सपत्थेरादीनं विय अनागतं अधिट्ठहन्तानं अनागतारम्मणं होति । महाकस्सपत्थेरो किर महाधातुनिधानं करोन्तो " अनागते अट्ठारसवस्साधिकानि द्वे वस्ससतानि इमे गन्धा मा सुस्सिसु, पुप्फानि मा मिलायिंसु, दीपा मा निब्बायिंसू" ति अधिट्ठहि । सब्ब तथेव अहोसि। अस्सगुत्तत्थेरो वत्तनियसेनासने भिक्खुसङ्घ सुक्खभत्तं भुञ्जमानं दिस्वा उदकसोण्डि दिवसे दिवसे पुरेभत्ते दधिरसं होतू ति अधिट्टासि । पुरेभत्ते गहितं दधिरसं होति । पच्छाभत्ते पाकतिकउदकमेव । (४) कायं पन चित्तसन्निस्सितं कत्वा अदिस्समानेन कायेन गमनकाले पच्चुप्पन्नारम्मणं होति । (५) कायवसेन चित्तं, चित्तवसेन वा कायं परिणामनकाले अत्तनो कुमारकवण्णादिनिम्मानकाले च सकायचित्तानं आस्म्मणकरणतो अज्झत्तारम्मणं होति । ( ६ ) हद्धा हत्थि अस्सादिदस्सनकाले पन बहिद्धारम्मणं ति । ( ७ ) एवं ताव इद्धिविधञाणस्स सत्तसु आरम्मणेसु पवत्ति वेदितब्बा । ६५. दिब्बसोतधातुञणं परित्त - पच्चुप्पन्न - अज्झत्त - बहिद्धारम्मणवसेन चतूसु आरम्मणेसु पन्तति । कथं ? तं हि यस्मा सद्दं आरम्मणं करोति सद्दो च परित्तो, तस्मा परित्तारम्मणं होति । विज्जमानं येव पन सद्दं आरम्मणं कत्वा पवत्तनतो पच्चुप्पन्नारम्मणं होति । तं अत्तनो कुच्छिसद्दसवनकाले अज्झत्तारम्मणं । परेसं सद्दसवनकाले बहिद्धारम्मणं ति एवं दिब्बसोतधातुत्राणस्स चतूसु आरम्मणेसु पवत्ति वेदितब्बा । महाधातुनिधान में महाकाश्यप स्थविर आदि के समान, अनागत का अधिष्ठान करने वालों के लिये अनागत आलम्बन वाला होता है। महाकाश्यप स्थविर ने महाधातुनिधान करते समय 'भविष्य में दो सौ अट्ठारह वर्ष तक ये गन्ध ( इत्र आदि) न सूखें, फल न कुम्हलायें, दीपक न बुझें' - यों अधिष्ठान किया था। सब वैसा ही हुआ । अश्वगुप्त (अस्सगुत्त) स्थविर ने वत्तनिय (अध्व) शयनासन में भिक्षुसङ्घ को रूखा-सूखा भात खाते देखकर (यह) जल की पुष्करिणी प्रतिदिन भोजन के पहले दही हो जाय " - यों अधिष्ठान किया। भोजन के पूर्व के लिये जाने पर (जल) दही हो जाया करता था, भोजन के पश्चात् साधारण जल ही । (४) काया को चित्त पर आधारित करके अदृश्यमान काया से जाते समय प्रत्युत्पन्न आलम्बन वाला होता है। (५) काया के रूप में चित्त को, या चित्त के रूप में काया को परिणत करते समय, तथा स्वयं को कुमार आदि के रूप में निर्मित करते समय, अपने ही काया एवं चित्त को आलम्बन बनाने से अध्यात्म आलम्बन वाला होता है । (६) बाहर से हस्ति, अश्व आदि दिखलाते समय बाह्य आलम्बन वाला होता है। (७) यों, ऋद्धिविध ज्ञान की प्रवृत्ति सात आलम्बनों में जाननी चाहिये । ६५. दिव्य श्रोत्रधातुज्ञान परिमित, प्रत्युत्पन्न, अध्यात्म एवं बाह्य - इन चार आलम्बनों में प्रवृत्त होता है । कैसे ? क्योंकि वह शब्द को आलम्बन बनाता है एवं शब्द परिमित होता है, अतः ( वह ज्ञान ) परिमित आलम्बन वाला होता है। विद्यमान शब्द को ही आलम्बन बनाकर प्रवृत्त

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