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अभिनिद्देसो
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पविट्ठस्सापि न ताव सहसा रूपं पाकटं होति; याव पन तं पाकटं होति, एत्थन्तरे एकद्वे सन्ततिवारा वेदितब्बा । दूरे ठत्वा पन रजकानं हत्थविकारं गण्डिभेरीआदिआकोटनाविकारं च दिस्वापि न ताव सद्दं सुणाति, याव पन तं सुणाति, एतस्मि पि अन्तरे एकद्वे सन्ततिवारा वेदितब्बा । एवं ताव मज्झिमभाणका ।
६८. संयुत्तभाणका पन - रूपसन्तति, अरूपसन्तती ति द्वे सन्ततियो वत्वा उदकं अक्कमित्वा गतस्स याव तीरे अक्कन्तउदकलेखा न विप्पसीदति, अद्धानतो आगतस्स याव काये उमभावो न वूपसम्मति, आतपा आगन्त्वा गब्धं पविट्ठस्स याव अन्धकारभावो न विगच्छति, अन्तोगब्भे कम्मट्ठानं मनसिकरित्वा दिवा वातपानं विवरित्वा ओलोकेन्तस्स या अक्खीनं फन्दनभावो न वूपसम्मति, अयं रूपसन्तति नाम । द्वे तयो जवनवारा अरूपसन्तति नामा ति वत्वा तदुभयं पि सन्ततिपच्चुपन्नं नामा ति वदन्ति । (२)
६९. एकभवपरिच्छिन्नं पन अद्धापच्चुप्पन्नं नाम । यं सन्धाय भद्देकरत्तसुत्ते - "यो चावुसो, मनो ये धम्मा उभयमेतं पच्चुप्पन्नं । तस्मि चे पच्चुप्पन्ने छन्दरागप्पटिबद्धं होति विञणं। छन्दरागप्पटिबद्धत्ता विञ्ञणस्स तदभिनन्दति । तदभिनन्दन्तो पच्चुप्पत्रेसु धम्मेसु संहीरती" (म० नि० ३ / १२९८ ) ति वृत्तं । (३)
उस बीच सन्तति के एक-दो अवसर जानने चाहिये। आलोकित स्थान में विचरण करने के बाद बन्द स्थान में प्रविष्ट को भी रूप सहसा प्रकट नहीं होता। जब तक वह प्रकट होता है, उस बीच सन्तति के एक-दो अवसर जानने चाहिये ।
दूर खड़े होकर ( घाट पर कपड़े धोते हुए) धोबियों के हाथों की गतिविधि (विकार) को एवं घण्टी, भेरी आदि को पीटने की गतिविधि को देखने पर भी, उसी समय शब्द नहीं सुनायी पड़ता। जब सुनायी पड़ता है, उस बीच सन्तति के एक दो अवसर ( बीत चुके- यह) जानना चाहिये। यह मज्झिमभाणकों का मत है।
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६८. किन्तु संयुत्तभाणक कहते हैं कि सन्तति के दो प्रकार हैं-रूपसन्तति एवं अरूपसन्तति । रूप-सन्तति उतने समय तक रहती है, जितनी समय जल में किसी के चलने से हुई मटमैली एवं तट को छूने वाली लहर को स्वच्छ होने में लगता है, या जितना समय कुछ दूर चलने वाले के शरीर की गर्मी शान्त होने में लगता है, या जितना समय धूप से होकर बन्द कमरे में आनेवाले के ( अस्थायी) अन्धेपन को दूर होने में लगता है, या जितना समय कमरे में कर्मस्थान का मनस्कार करने के बाद खिड़की खोलकर बाहर देखने वाले की आँखों का चौंधियाना दूर होने में लगता है; एवं अरूप सन्ततिं जवनों की दो-तीन बारी है। यह कहकर, (संयुत्तभाणक) दोनों को ही 'सन्ततिप्रत्युत्पन्न' कहते हैं । (२)
६९. जो एक भव तक सीमित होता है उसे अध्वप्रत्युत्पन्न कहा जाता है, जिसे लक्ष्य करके भद्देकरत्तसुत्त में कहा गया है - " आयुष्मन्, जो यह मन है एवं जो ये धर्म हैं- ये दोनों ही प्रत्युत्पन्न हैं । उस प्रत्युत्पन्न (वर्तमान) के प्रति विज्ञान छन्द और राग से बद्ध होता है, (वह विज्ञान) उसमें रुचि लेता है । उसमें रुचि लेते हुए वह प्रत्युत्पन्न धर्मों की ओर खिंच जाता है।" (म० नि० ३ / १२९८) । (३)