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विसुद्धिमग्गो आदिना पन नयेन नामोत्तजाननकाले पुब्बेनिवासजाणे वुत्तनयेनेव नवत्तब्बारम्मणं होती ति एवमनागतंसबाणस्स अट्ठसु आरम्मणेसु पवत्ति वेदितब्बा।
७६. यथाकम्मूगाणं परित्त-महग्गत-अतीत-अज्झत्त-बहिद्धारम्मणवसेन पञ्चसु आरम्मणेसु पवत्तति । कथं ? तं हि कामावचरकम्मजाननकाले परित्तारम्मणं होति । रूंपावचरारूपावचरकम्मजाननकाले महग्गतारम्मणं। अतीतमेव जानांती ति अतीतारम्मणं । अत्तनो कम्म जाननकाले अज्झत्तारम्मणं । परस्स कम्मं जाननकाले बहिद्धारम्मणं होति। एवं यथाकम्मूपगआणस्स पञ्चसु आरम्मणेसु पवत्ति वेदितब्बा। ..
यं चेत्थ अज्झत्तारम्मणं चेव बहिद्धारम्मणं चा ति वुत्तं, तं कालेन अज्झत्तं कालेन बहिद्धा जाननकाले अज्झत्तबहिद्धारम्मणं पि होति येवा ति॥
इति साधुजनपामोज्जत्थाय कते विसुद्धिमग्गे अभिज्ञानिद्देसो नाम तेरसमो परिच्छेदो॥
होंगे, सुब्रह्मा नामक उनके ब्राह्मण पिता होंगे, ब्रह्मवती नाम की ब्राह्मणी माता" (दी० नि० ३/ ६०) आदि प्रकार से नामगोत्र को जानते समय, पूर्वनिवास ज्ञान में उक्त के अनुसार ही, अवक्तव्य आलम्बन वाला होता है। यों, अनागत संज्ञान की प्रवृत्ति आठ आलम्बनों में जाननी चाहिये।
७६. यथाकर्मोपग ज्ञान परिमित, महद्गत, अतीत, अध्यात्म, बाह्य आलम्बन के अनुसार पाँच आलम्बनों में प्रवृत्त होता है। कैसे? वह १. कामावचर (भूमि के) कर्म को जानते समय परिमित आलम्बन वाला होता है। २. रूपावचर एवं अरूपावचर कर्म को जानते समय महगत आलम्बन वाला। ३. अतीत को ही जानता है, अतः अतीत आलम्बन वाला है। ४. अपने कर्म को जानने योग्य अध्यात्म आलम्बन वाला एवं ५. दूसरे के कर्म को जानते समय बाह्य आलम्बन वाला होता है। यों, यथाकर्मोपग ज्ञान की प्रवृत्ति पाँच आलम्बनों में जानना चाहिये। एवं यहाँ जो 'अध्यात्म आलम्बन एवं बाह्य आलम्बन' कहा गया है, वह कभी आन्तरिक रूप से तो कभी बाह्य रूप से जानते समय अध्यात्म भी एवं बाह्य भी होता ही है।
यों, साधुजनों के प्रमोदहेतु विरचित विशुद्धिमार्ग ग्रन्थ में
अभिज्ञानिर्देश नामक त्रयोदश परिच्छेद समाप्त ॥