Book Title: Visuddhimaggo Part 02
Author(s): Dwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
Publisher: Bauddh Bharti

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Page 381
________________ ३५४ विसुद्धिमग्गो सन्ततिपच्चुप्पन्नं चेत्थे, अट्ठकथासु आगतं, अद्धापच्चुप्पन्नं सुत्ते। ७०. तत्थ केचि खणपच्चुप्पन्नं चित्तं चेतोपरियाणस्स आरम्मणं होती ति वदन्ति। किं कारणा? यस्मा इद्धिमतो च परस्स च एकक्खणे चित्तं उप्पज्जती ति । इदं च नेसं ओपम्मंयथा आकासे खित्ते पुष्फमुट्ठि अवस्सं एकं पुष्फ एकस्स वण्टेन वण्टं पटिविज्झति, एवं परस्स चित्तं जानिस्सामी' ति रासिवसेन महाजनस्स चित्ते आवज्जिते अवस्सं एकस्स चित्तं एकेन चित्तेन उप्पादक्खणे वा ठितिक्खणे वा भङ्गक्खणे वा पटिविज्झती ति। ___ तं पन वस्ससतं पि वस्ससहस्सं पि आवजन्तो येन च. चित्तेन आवजति, येन च जानाति, तेसं द्विन्नं सह ठानाभावतो आवजनजवनानं च अनिटे ठाने नानारम्मणभावप्पत्तिदोसतो अयुत्तं ति अट्ठकथासु पटिक्खित्तं। ७१. सन्ततिपच्चुप्पन्नं पन अद्धापच्चुप्पन्नं च आरम्मणं होती ति वेदितब्बं । तत्थ यं वत्तमानजनवनवीथितो अतीतानागतवसेन द्वित्तिजवनवीथिपरिमाणे काले परस्स चित्तं, तं सब्बं पि सन्ततिपच्चुप्पन्नं नाम "अद्धापच्चुपनं पन जवनवारेन दीपेतब्बं" ति संयुत्तट्ठकथायं वुत्तं । तं सुटु वुत्तं। ७२. तत्रायं दीपना-इद्धिमा परस्स चित्तं जानितुकामो आवजति। आवजनं खणपच्चुप्पन्नं आरम्मणं कत्वा तेनेव सह निरुज्झति। ततो चत्तारि पञ्च वा जंवनानि। येसं पच्छिमं इद्धिचित्तं, सेसानि कामावचरानि; तेसं सब्बेसं पि तदेव निरुद्धं चित्तं आरम्मणं होति, एवं यहाँ सन्तति-प्रत्युत्पन्न अट्ठकथाओं में आया है और अध्व-प्रत्युत्पन्न सुत्त में। ७०. कोई-कोई (जैसे अनुराधपुर के अभयगिरिविहार के निवासी) कहते हैं कि क्षणप्रत्युत्पन्न चित्त चेत:पर्याय ज्ञान का आलम्बन होता है। किस कारण से? क्योंकि ऋद्धिमान् एवं दूसरे का चित्त-दोनों एक ही क्षण में उत्पन्न होते हैं। एवं उनकी उपमा यह है-जैसे यदि आकाश में मुट्ठीभर फूल उछाले जाँय तो (कम से कम) एक फूल का वृन्त (डण्डी) दूसरे के वृन्त से अवश्य टकराता है; वैसे ही 'परचित्त को जानूँगा'-यों सामूहिक रूप में जनसमूह के चित्त का आवर्जन करने पर अवश्य ही एक का चित्त (किसी) दूसरे चित्त से उत्पादक्षण में स्थितिक्षण में या भङ्गक्षण में टकराता है। किन्तु अट्ठकथाओं में इसका खण्डन किया गया है; क्योंकि चाहे कोई सौ वर्ष तक या हजार वर्ष तक भी आवर्जन करता रहे, फिर भी जिस चित्त से आवर्जन करता है एवं जिससे जानता है, वे दोनों एक साथ नहीं रह सकते; एवं क्योंकि आवर्जन तथा जवन दोनों (के एक ही आलम्बन) की उपस्थिति को इष्ट मानने पर नानालम्बन दोष की प्राप्ति होती है। ७१. ज्ञातव्य है कि आलम्बन ‘सन्ततिप्रत्युत्पन्न' एवं 'अध्वप्रत्युत्पन्न होता है। वहाँ, जो वर्तमान जवनवीथि से अतीत एवं अनागत के रूप में, दो-तीन जवनवीथि की कालावधि वाला परचित्त है, वह सब सन्ततिप्रत्युत्पन्न है। किन्तु संयुत्तट्ठकथा में कहा गया है कि "अध्वप्रत्युत्पन्न की व्याख्या जवनवार द्वारा की जानी चाहिये।" यह ठीक कहा गया है। ७२. इसकी व्याख्या इस प्रकार है-परचित्त के ज्ञान का अभिलाषी ऋद्धिमान् आवर्जन करता है। (उसका वह) आवर्जन क्षणप्रत्युत्पन्न को आलम्बन बनाकर, उसी के साथ निरुद्ध हो

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