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अभिज्ञानिद्देसो
३४१ ४६. दस्सनट्रेन चक्खु, चक्खुकिच्चकरणेन च चक्खुमिवा ति पि चक्खु । चुतूपपातदस्सनेन दिट्ठिविसुद्धिहेतुत्ता विसुद्ध।
यो हि चुतिमत्तमेव पस्सति, न उपपातं सो उच्छेददिढेि गण्हाति। यो उपपातमत्तमेव पस्सति न चुतिं, सो नवसत्तपातुभावदिढेि गण्हाति। यो पन तदुभयं पस्सति, सो यस्मा दुविधं पि तं दिट्ठिगतं अतिवत्तति, तस्मास्स तं दस्सनं दिट्ठिविसुद्धिहेतु होति। उभयं पि चेतं बुद्धपुत्ता पस्सन्ति । तेन वुत्तं–'चुतूपपातदस्सनेन दिट्ठिविसुद्धिहेतुत्ता विसुद्धं' ति।
४७. मनुस्सूपचारं अतिक्कमित्वा रूपदस्सनेन अतिक्कन्तमानुसकं। मानुसकं वा मंसचक्टुं अतिक्कन्तत्ता अतिक्कन्तमानुसकं ति वेदितब्बं । तेन दिब्बेन चक्खुना विसुद्धेन अतिक्कन्तमानुसकेन। सत्ते पस्सती ति मनुस्सा मंसचक्खुना विय सत्ते ओलोकेति।
४८. चवमाने उप्पजमाने ति। एत्थ, चुतिक्खणे उपपत्तिक्खणे वा दिब्बचक्खुना दटुं न सक्का, ये पन आसनचुतिका इदानि चविस्सन्ति ते चवमाना, ये च गहितपटिसन्धिका सम्पति निब्बत्ता व ते उप्पज्जमाना ति अधिप्पेता। ते एवरूपे चवमाने उप्पज्जमाने च पस्सतीति दस्सेति।
४९. हीने ति। मोहनिस्सन्दयुत्तत्ता हीनानं जातिकुलभोगादीनं वसेन हीळिते ओहीळिते उञाते अवज्ञाते। पणीते ति। अमोहनिस्सन्दयुत्तत्ता तब्बिपरीते। सुवण्णे ति। अदोस
महाज्योतिःसम्पन्न या दीवार के आर-पार आदि के रूप का दर्शन या महान् गति करने वाला होने से भी दिव्य है। उस सबको शब्दशास्त्र (व्याकरण) के अनुसार जानना चाहिये।
४६. दर्शन के अर्थ में चक्षु है, एवं चक्षु का कृत्य करने में चक्षु के समान है, इसलिये भी चक्षु है। च्युति एवं उत्पाद दर्शन के कारण, दृष्टि की विशुद्धि का हेतु होने से विशुद्ध है।
क्योंकि जो च्युतिमात्र को देखता है, उत्पाद को नहीं, वह उच्छेददृष्टि का ग्रहण करता है। जो उत्पादमात्र को देखता है, च्युति को नहीं, वह 'नवीन सत्त्व का प्रादुर्भाव होता है'-यह दृष्टि ग्रहण करता है। किन्तु दोनों को ही देखने वाला; क्योंकि दोनों ही दृष्टियों का अतिक्रमण करता है, अत: उसका वह दर्शन दृष्टिविशुद्धि का हेतु होता है। एवं यह दोनों ही बुद्ध के पुत्र (श्रावक) देखते हैं। अतः कहा गया है-"च्युति एवं उत्पाद-दर्शन के कारण दृष्टिविशुद्धि का हेतु है, अतः विशुद्ध है"।
४७. मनुष्य के उपचार (गोचर, पहुँच) का अतिक्रमण करते हुए, रूप का दर्शन करने से अतिमानवीय है। अथवा, मानवीय मांस-चक्षुओं का अतिक्रमण करने से अतिमानवीय है, ऐसा जानना चाहिये। उस दिन चक्खुना विसुद्धेन अतिक्वन्तमानुसकेन सत्ते पस्सति-जैसे मनुष्य मांस चक्षुओं से (देखते हैं), वैसे सत्त्वों को देखता है।
४८. चवमाने, उप्पजमाने–यहाँ, च्युति-क्षण को या उत्पत्ति क्षण को दिव्य चक्षु द्वारा देखा नहीं जा सकता। (वस्तुतः) च्युत होने वाले (च्यवमान) से अभिप्राय है उनका जो मरणासन्न हैं, अभी अभी ही च्युत होंगे, एवं उत्पद्यमान से उनका, जो प्रतिसन्धि ग्रहण किये हुए, अभीअभी उत्पन्न हैं। उन्हें इस प्रकार च्युत होते एवं उत्पन्न होते देखता है-यह दिखलाया गया है।
४९. हीने-मोह के फल (निष्यन्द) से युक्त होने से, हीन जाति, कुल, भोग आदि के कारण जिनकी निन्दा होती है, जिनसे घृणा की जाती है, नीचा देखा जाता है, अवज्ञा की जाती