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विसुद्धिमग्गो
आलोको थामगतो होती ति 'एत्थ आलोको होतू' ति यत्तकं ठानं परिच्छिन्दति, तत्थ आलोक तिट्ठति येव। दिवसं पिं निसीदित्वा पस्सतो रूपदस्सनं होति ।
रत्तिं तिणुक्काय मग्गपटिपन्नो चेत्थ पुरिसो ओपम्मं ।
५९. एको किर रत्तिं तिणुक्काय मग्गं पटिपज्जि । तस्स सा तिणुक्का विज्झायि । अथस्स समविसमानि न पञयिंसु । सो तं तिणुक्कं भूमियं घंसित्वा तिणुक्का पुन उज्जालेसि। सा पज्जलित्वा पुरिमालोकतो महन्ततरं आलोकमकासि । एवं पुनप्पुनं विज्झातं उज्जालयता कमेन सुरियो उट्ठासि। सुरिये उट्ठिते 'उक्काय कम्मं नत्थी' ति तं छत्वा दिवसं पि अगमासि ।
तत्थ उक्कालोको विय परिकम्मकाले कसिणालोको । उक्काय विज्झाताय समविसमानं अदस्सनं विय रूपगतं पस्सतो परिकम्मस्स वारातिक्कमेन आलोके अन्तरहिते रूपगतानं अस्सनं । उक्काय घंसनं विय पुनप्पुनं पवेसनं । उक्काय पुरिमालोकतो महन्ततरालोककरणं विय पुन परिकम्मं करोतो बलवतरालोकफरणं । सुरियुट्ठानं विय थामगतालोकस्स यथापरिच्छेदेन ठानं । तिणुकं छत्वा दिवसं पि गमनं विय परित्तालोकं छड्डेत्वा थामगतेनालोकेन दिवसं पि रूपदस्सनं ।
६०. तत्थ यदा तस्स भिक्खुनो मंसचक्खुस्स अनापाथगतं अन्तोकुच्छिगतं हृदयवत्थुनिस्सितं हेट्ठापथवीतलनिस्सितं तिरोकुड्डपब्बतपाकारगतं परचक्कवाळगतं ति इदं रूपं
का विस्तार करना चाहिये । यों, क्रमशः आलोक सबल (सुस्थिर) होता है। यहाँ तक कि जिस स्थान तक इस प्रकार सीमा निर्धारित करता है - 'यहाँ आलोक हो', वहाँ आलोक रहता ही है । यदि दिनभर बैठकर भी देखे तो रूप का दर्शन होता है।
यहाँ, रात में तृण की (घास-फूस से बनायी गगी) मशाल (उल्का) लेकर मार्ग पर चलने वाला पुरुष उपमान (दृष्टान्त) है।
५९. रात में कोई तृण की मशाल लेकर मार्ग पर जा रहा था । उसकी वह तृण की मशाल बुझ गयी । तब उसे समतल - असमतल का ज्ञान नहीं हो पाया। उसने उस तृण की मशाल को भूमि पर घिसकर पुनः जलाया। जलने पर उसने (राख झड़ जाने से) पहले से भी अधिक प्रकाश किया। यों बारम्बार बुझने पर जलाते हुए, क्रमशः सूर्य निकल आया । सूर्योदय होने पर 'मशाल का काम नहीं है'-यों सोचकर उसे छोड़कर दिनभर भी चलता रहा।
यहाँ परिकर्म के समय कसिण का आलोक मशाल के प्रकाश के समान है। रूपगतदर्शन के समान परिकर्म का अवसर बीत जाने पर आलोक के अन्तर्धान हो जाने पर रूपगतों का अदर्शन, मशाल के बुझ जाने पर समतल असमतल के अदर्शन के समान है। मशाल के घर्षण के समान, बार बार... करना है। पुनः परिकर्म करने से पहले अधिक आलोक का फैलना वैसा ही है जैसा मशाल का पहले से अधिक प्रकाशित होना है । सुस्थिर आलोक का निर्धारित सीमा के अनुसार ठहरना, सूर्य के उदय के समान है। परिमित आलोक को छोड़कर तेज प्रकाश में दिनभर भी रूप को देखना वैसा ही है जैसा कि तृण की मशाल को छोड़कर दिनभर भी चलना
है।
६०. जब वह रूप जो कि भिक्षु के मांस-चक्षु का विषय नहीं है-जैसे उदरस्थ, हृदयवस्तु