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विसुद्धिमग्गो ५४. कायस्स भैदा ति। उपादिण्णक्खन्धपरिच्चागा। परं मरणा ति। तदनन्तरं अभिनिब्बत्तिक्खन्धग्गहणे। अथ वा-कायस्स भेदा ति। जीवितिन्द्रियस्स उपच्छेदा। परं मरणा ति। चुतिचित्ततो उद्धं।
अपायं ति एवमादि सब्बं निरयवेवचनमेव। ... ५५. निरयो हि सग्गमोक्खहेतुभूता पुञ्जसम्मता अया अपेतत्ता, सुखानं वा आयस्स अभावा अपायो। दुक्खस्स गति पटिसरणं ति दुग्गति, दोसबहुलताय वा दुटेन कम्मुना निब्बत्ता गती ति दुग्गति। विवसा निपतन्ति एत्थ दुक्कटकारिनो ति विनिपातो। विनस्सन्ता वा एत्थ पतन्ति सम्भिज्जमानङ्गपच्चङ्गा ति पि विनिपातो। नत्थि एत्थ अस्सादसञितो अयो ति निरयो।
५६. अथ वा-अपायग्गहणेन तिरच्छानयोनिं दीपेति। तिरच्छानयोनि हि अपायो सुगतितो अपेतत्ता, न दुग्गति; महेसक्खानं नागराजादीनं सम्भवतो। दुग्गतिग्गहणेन पेत्तिविसयं। सो हि अपायो चेव दुग्गति च, सुगतितो अपेतत्ता दुक्खस्स च गतिभूतत्ता। न तु विनिपातो असुरसदिसं अविनिपतितत्ता। विनिपातग्गहणेन असुरकायं । सो हि यथावुत्तेन अत्थेन अपायो चेव दुग्गति च सब्बसमुस्सयेहि विनिपतितत्ता विनिपातो ति वुच्चति। निरयग्गहणेन अवीचिआदिअनेकप्पकारं निरयमेवा ति। उपपन्ना ति। उपगता। तत्थ अभिनिब्बत्ता ति अधिप्पाया। वुत्तविपरियायेन सुक्कपक्खो वेदितब्बो। ।
५४. कायस्स भेदा-उपादिन स्कन्धों का परित्याग हो जाने पर। परं मरणा-उसके तत्काल बाद अभिनिवृत्त स्कन्ध के ग्रहण के समय। अथवा, कायस्स भेदा.-जीवितेन्द्रिय का उपच्छेद हो जाने पर, एवं परं मरणा-च्युतिचित्त से परे (=ऊर्ध्व)।
अपायं आदि सब (शब्द) नरक के पर्याय ही हैं।
५५. स्वर्ग एवं मोक्ष के हेतुभूत पुण्य के रूप में माने जाने वाले 'अय' (वि० म० १६४१७) (कारण) से दूर होने से या सुखों की आय (मूल) के अभाव से नरक अपाय है। दुःख की ओर गति है, अतः दुग्गति है। पापी विवश होकर उसमें गिरते हैं, अतः विनिपात है। अथवा, यहाँ गिरते समय उनके अङ्ग-प्रत्यङ्ग विनष्ट होते रहते हैं, इसलिये भी विनिपात है। यहाँ आस्वाद (-तृप्ति, सन्तोष) नामक 'अय' नहीं है, अत: निरय है।
५६. अथवा, अपाय (पद के) ग्रहण से तिर्यग्योनि को बतला रहे हैं। तिर्यग्योनि (यद्यपि) सुगति से दूर होने से अपाय है, तथापि दुर्गति नहीं है; क्योंकि (इस योनि में) महाशक्तिसम्पन्न नागराज आदि भी होते हैं। दुग्गति (पद के) ग्रहण से प्रेतों के क्षेत्र को (बतला रहे हैं)। क्योंकि वह (क्षेत्र) अपाय भी है एवं दुर्गति भी; सुगति से दूर होने से एवं दुःख की ओर गतिरूप होने से। किन्तु जैसा असुरों (प्रेतों) का विनिपात होता है, वैसा विनिपात न होने से, विनिपात नहीं
है।
विनिपात (पद के) ग्रहण से असुरकाय को (बतलाया) गया है; क्योंकि यह यथोक्त अर्थ में अपाय, दुर्गति एवं सभी अच्छे अवसरों से वञ्चित होने के कारण विनिपात कहलाता है। निरय (पद के) ग्रहण से अवीचि आदि अनेक प्रकार का नरक ही अभिप्रेत है। उपपन्नाउपगत। अर्थात् वहाँ उत्पन्न। उक्त के विपरीत शुक्ल(पुण्य)पक्ष को जानना चाहिये।