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अभिज्ञानिद्देसो
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___ अयं पन विसेसो-तत्थ सुगतिग्गहणेन मनुस्सगति पि सङ्गय्हति। सग्गग्गहणेन देवगतियेव । तत्थ सुन्दरा गती ति सुगति । रूपादीहि विसयेहि सुटु अग्गो ति सग्गो। सो सब्बो पि लुजनपलुज्जनढेन लोको ति अयं वचनत्थो।
इति दिब्बेन चक्खुना ति। आदि सब्बं निगमनवचनं। एवं दिब्बेन चक्खुना...पे०... पस्सती ति अयमेत्थ सङ्घपत्थो।
५७. एवं पस्सितुकामेन पन आदिकम्मिकेन कुलपुत्तेन कसिणारम्मणं अभिज्ञापादकज्झानं सब्बाकारेन अभिनीहारक्खमं कत्वा, तेजोकसिणं, ओदातकसिणं, आलोककसिणंति इमेसु तीसु कसिणेसु अञतरं आसनं कातब्बं, उपचारज्झानगोचरं कत्वा वड्वेत्वा ठपेतब्बं । न तत्थ अप्पना उप्पादेतब्बा ति अधिप्पायो। सचे हि उप्पादेति, पादकज्झाननिस्सयं होति, न परिकम्मनिस्सयं। इमेसु च पन तीसु आलोककसिणं येव सेट्ठतरं। तस्मा तं वा इतरेसं वा अञ्चतरं कसिणनिद्देसे वुत्तनयेन उप्पादेत्वा उपचारभूमियं येव ठत्वा वड्डेतब्बं । वड्डनानयो पि चस्स तत्थ वुत्तनयेनेव वेदितब्बो।
५८. वड्डितट्ठानस्स अन्ता येव रूपगतं पस्सितब्बं । रूपगतं पस्सतो पनस्स परिकम्मस्स वारो अतिक्कमति। ततो आलोको अन्तरधायति । तस्मि अन्तरहिते रूपगतं पि न दिस्सति । अथानेन पुनप्पुनं पादकज्झानमेव पविसित्वा ततो वुट्ठाय आलोको फरितब्बो। एवं अनुक्कमेन
किन्तु अन्तर यह है-वहाँ, सुगति के ग्रहण से मनुष्य-गति (योनि) का भी समावेश होता है। स्वर्ग के ग्रहण से देवयोनि का ही। सुन्दरगति-सुगति। रूप आदि विषयों में भली-भाँति अग्र (अग्गो) है, अतः स्वर्ग (सग्गो) है। वह सभी नष्ट-भ्रष्ट होने के अर्थ में लोक (लोको) है-यह शब्दार्थ है।
इति दिब्बेन चक्खुना-आदि सब निष्कर्ष के रूप में कहा गया है। संक्षेप में अर्थ यह है-यों दिव्यचक्षु से ...पूर्ववत्... देखता है। .
५७. यों देखने के अभिलाषी आदिकर्मिक भिक्षु को चाहिये कि कसिण को आलम्बन बनाने वाले अभिज्ञा के आधारभूत ध्यान को वह सब प्रकार से अभिनीहार (स्वीकृति) योग्य बनाये। तब तेजकसिण, अवदातकसिण, आलोककसिण इन तीन कसिणों में से किसी को (दिव्यचक्षुर्ज्ञान के उदय का) समीपवर्ती बनाये। एवं उपचारध्यान को गोचर (=क्षेत्र) बनाकर, (कसिण को) बढ़ाता रहे। अभिप्राय यह है कि उस (ध्यान) में अर्पणा नहीं उत्पन्न करनी चाहिये। यदि उत्पन्न करता है, तो कसिंण आधारभूत ध्यान का आश्रय (=निःश्रय) होगा, परिकर्म का आश्रय नहीं। किन्तु इन तीनों में आलोककसिण हो श्रेष्ठ है। अत: उसे या अन्यों में से किसी को कसिण-. निर्देश में बतलायी गयी विधि से उत्पन्न कर, उपचारभूमि में ही बने रहकर बढ़ाना चाहिये। एवं इसे बढ़ाने की विधि को भी वहाँ कही विधि से ही जानना चाहिये।
५८. जहाँ तक कसिण बढ़ाया गया है, केवल वहीं तक जी कुछ रूपगत (=दिखायी देने योग्य) है, उसे देखा जा सकता है। जिस समय वह रूपगत को देखता रहता है, परिकर्म का अवसर बीत जाता है। तब आलोक अन्तर्हित हो जाता है। उसके अन्तर्हित होने पर रूपगत भी नहीं दिखलायी पड़ता। तब उसे बारम्बार आधारभूत ध्यान में प्रवेश कर उससे उठकर आलोक