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अभिनिद्देसो
चिन्तयित्थ, थेरो तुम्हाकं खमति, चित्तं वूपसमेथा" ति । तेना पि अरियस्स गतदिसाभिमुखेन अञ्जलिं पग्गहेत्वा "खमतू" ति वत्तब्बं ।
सचे सो परिनिब्बुतो होति, परिनिब्बतमञ्चट्ठानं गन्त्वा यावसिवथिकं गन्त्वा पि खमापेतब्बं । एवं कते नेव सग्गावरणं न मग्गावरणं होति, पाकतिकमेव होती ति ।
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५३. मिच्छादिट्टिका ति । विपरीतदस्सना । मिच्छादिट्ठिकम्मसमादाना ति । मिच्छादिट्टिवसेन समादिन्ननानाविधकम्मा ये च मिच्छादिट्ठिमूलकेसु कायकम्मादीसु अप समादपेन्ति । एत्थ च वचीदुच्चरितग्गहणेनेव अरियूपवादे मनोदुच्चरितग्गहणेन च मिच्छादिट्ठिया सङ्गहिताय पि इमेसं द्विनं पुन वचनं महासावज्जभावदस्सनत्थं ति वेदितब्बं ।
महासावज्जो हि· अरियूपवादो, आनन्तरियसदिसत्ता । वुत्तं पि चेत्तं - " सेय्यथापि, सारिपुत्त, भिक्खु सीलसम्पन्नो समाधिसम्पन्नो पञ्ञसम्पन्नो दिट्ठे व धम्मे अञ्ञ आराधेय्य, एवंसम्पदमिदं सारिपुत्त, वदामि तं वाचं अप्पहाय तं चित्तं अप्पहाय, तं दिट्ठि अप्पटिनिस्सज्जित्वा यथाभतं निक्खित्तो, एवं निरये" (म० नि० १ / ११० ) ति । मिच्छादिट्ठितो च महासावज्जतरं नाम अञ्ञ नत्थि । यथाह - " नाहं, भिक्खवे, अञ्ञ एकधम्मं पि समनुपस्सामि यं एवं महासावज्जं यथयिदं, भिक्खवे, मिच्छादिट्ठि । मिच्छादिट्ठिपरमानि, भिक्खवे, वज्जानी" (अं० नि० १ / ५१ ) ति ।
चित्त को शान्त करें ।" उस पण्डित भिक्षु को भी आर्य के गमन की दिशा की ओर हाथ जोड़कर 'क्षमा करें" यों कहना चाहिये ।
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यदि वह परिनिर्वृत हो चुका हो, तो जिस शय्या पर वह परिनिर्वृत्त हुआ था उसके समीप जाकर एवं फिर श्मशान तक भी जाकर क्षमा करवानी चाहिये । यों कहने पर न तो स्वर्ग का और न मार्ग का आवरण होता है। जैसा था वैसा ही रहता है।
५३. मिच्छादिट्टिका - विपरीत दर्शन वाले | मिच्छादिट्ठिकम्मसमादाना - मिथ्यादृष्टि के कारण अनेकविध कर्म को उपार्जित करनेवाले, एवं वे भी जो मिथ्यादृष्टिमूलक कायिक कर्म दूसरों को भी उपार्जित करवाते हैं।
एवं यहाँ, यद्यपि वाचिक दुश्चरित्र के अन्तर्गत आर्यों के प्रति अपभाषण भी आ जाता है, मनोदुश्चरित्र के अन्तर्गत मिथ्यादृष्टि भी आ जाती है, तथापि इन दोनों का पुनरुल्लेख उनकी महासावद्यता. (अतिशय पाप) को प्रदर्शित करने के लिये है - यह जानना चाहिये ।
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आर्यों के प्रति अप्रभाषण महासावद्य ( = महापाप ) है, आनन्तर्य के समान होने से । एवं यह कहा भी है- " सारिपुत्र, जैसे कि कोई शीलसम्पत्र, समाधिसम्पन्न, प्रज्ञासम्पन्न भिक्षु इसी जन्म में आज्ञा (= ज्ञान, अर्हत्त्व ) प्राप्त कर सकता है, वैसे ही, सारिपुत्र, इस विषय में भी मैं कहता हूँ कि उस वचन को उस दृष्टि को विना त्यागे, नरक में पड़े हुए के समान ही होगा ।" (म० नि० १/११०)। एवं मिथ्यादृष्टि से बढ़कर कोई पाप नहीं है। जैसा कि कहा है – “भिक्षुओ ! मैं दूसरे किसी एक भी ऐसे धर्म को नहीं देखता जो ऐसा महापाप हो, जैसा कि, भिक्षुओ ! यह मिथ्यादृष्टि है । भिक्षुओ, वर्जित कर्मों में मिथ्यादृष्टि सर्वोपरि है । " ( अं० नि० १/५१)।
१. परिनिब्बुतमञ्चट्ठानं ति । पूजाकरणट्ठानं सन्धायाह ।