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अभिनिद्देसो
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चन्दिमसुरियानं पन पातुभूतदिवसे येव सिनेरु-चक्कवाळ-हिमवन्तपब्बता पातुभवन्ति । ते च खो अपुब्बं अचरिमं फग्गुणपुण्णमदिवसे येव पातुभवन्ति । कथं ? यथा नाम कङ्गुभत्ते पच्चमाने एकप्पहारेनेव पुप्फुळकानि उट्ठहन्ति । एके पदेसा थपथपा होन्ति, एके निन्ननिन्ना, एके समसमा । एवमेवं धूपथपट्ठाने पब्बाता होन्ति, निन्ननिन्नट्ठाने समुद्दा, समसमट्ठाने दीपा ति । ३२. अथ तेसं सत्तानं रसपठविं परिभुञ्जन्तानं कमेन एकच्चे वण्णवन्तो, एकच्चे दुब्बणा होति । तत्थ वण्णवन्तो दुब्बण्णे अतिमञ्ञन्ति । तेसं अतिमानपच्चया सापि रसपथवी अन्तरधायति, भूमिपप्पटको पातुभवति । अथ नेसं तेनेव नयेन सो पि अन्तरधायति, पदालता' पातुभवति । तेनेव नयेन सा पि अन्तरधायति । अकट्ठपाको सालि पातुभवति, अकणो असो सुद्धो सुगन्धो तण्डुलप्फलो।
३३. ततो नेसं भाजनानि उप्पज्जन्ति । ते सालिं भाजने ठपेत्वा पासाणपिट्ठिया ठपेन्ति । सयमेव जालसिखा उट्ठहित्वा तं पचति । सो होति ओदनो सुमनजातिपुप्फसदिसो, न तस्स सूपेन वा ब्यञ्जनेन वा करणीयं अत्थि । यं यं रसं भुञ्जितुकांमा होन्ति, तं तं रसो व होति । तेसं तं ओळारिकं आहारं आहरयतं ततो पभुति मुत्तकरीसं सञ्जायति । अथ नेसं तस्स निक्खमनत्थाय व्णमुखानि पभिज्जन्ति, पुरिसस्स पुरिसभावो इत्थिया पि इत्थिभावो पातुभवति ।
चन्द्रमा एवं सूर्य के प्रादुर्भाव के बाद नक्षत्रों के समूह प्रादुर्भूत होते हैं। उस समय से रात और दिन का पता चलता है, एवं क्रमशः मास, पक्ष, ऋतु एवं संवत्सर का भी । चन्द्रमा एवं सूर्य का जिस दिन प्रादुर्भाव होता है, उसी दिन सुमेरु, चक्रवाल एवं हिमवान् पर्वत प्रादुर्भूत होते हैं । एवं वे ठीक फाल्गुन की पूर्णिमा के दिन ही प्रादुर्भूत होते हैं । न उसके पहले, न पीछे। कैसे? जैसे जब कोदों (=कङ्गु) का भात पकाया जाता है, तब एक ही साथ बुलबुले उठते हैं। तब कोई कोई (भू-) भाग उठे हुए होते हैं, एवं नीचे-नीचे के भागों में समुद्र तथा समतल भागों में द्वीप ।
३२. रस-पृथ्वी का आहार करने वाले उन सत्त्वों में से कुछ रूपवान् तो कुछ कुरूप हो जाते हैं। इनमें, रूपवान् सत्त्व कुरूपों का अनादर करते हैं। उनके अतिमान के कारण रसपृथ्वी (ह्यूमस) भी अन्तर्धान हो जाती है एवं पपड़ी जैसी (कठोर) भूमि का प्रादुर्भाव होता है। बाद में उनके उसी प्रकार (के आचार-विचार) से वह भी अन्तर्धान होती है एवं पादलता प्रादुर्भूत होती है। समय पाकर वैसे ही वह भी अन्तर्हित हो जाती है । विना जोते- बोये तैयार होने वाला शालि प्रादुर्भूत होता हैं, जी कण (खुद्दा) रहित, भूसी रहित, शुद्ध एवं सुगन्धित तण्डुल-फल ( = चावल) होता है।
३३. तब उनके लिये, पात्रों का प्रादुर्भाव होता है। वे शालि को पात्र में भरकर उसे पाषाणपिण्ड पर रखते हैं। लपट स्वयं ही उठकर उसे पकाती है। वह भात चमेली के फूलों के
१. पदालता ति । एवंनामिका लताजाति । बदालता ति पि पाठो |
२. अश्विनी, भरणी, रोहिणी आदि सत्ताइस नक्षत्र माने गये हैं। निद्देस में इनकी संख्या अट्ठाईस मानी गयी है ।
३. एक प्रकार की लता ।