Book Title: Visuddhimaggo Part 02
Author(s): Dwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
Publisher: Bauddh Bharti

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Page 363
________________ विसुद्धिमग्गो पूरेन्तो वस्सति। खारुदकेन फुटफुठ्ठा पथवीपब्बतादयो विलीयन्ति, उदकं समन्ततो वातेहि धारियति। पथवितो याव दुतियज्झानभूमिं उदकं गण्हाति। तत्थ तयो पि ब्रह्मलोके विलीयापेत्वा सुभकिण्हे आहच्च तिट्ठति। तं याव अणुमत्तं पि सङ्घारगतं अत्थि, ताव न वूपसम्मति। उदकानुगतं पन सब्बसङ्घारगतं अभिभवित्वा सहसा वूपसम्मति, अन्तरधानं गच्छति। हेट्ठाआकासेन सह उपरिआकासो एको होति महन्धकारो ति' सब्बं वुत्तसदिसं। केवलं पनिध आभस्सरब्रह्मलोकं आदि कत्वा लोको पातुभवति ।-सुभकिण्हतो च चवित्वा आभस्सरट्ठानादीसु सत्ता निब्बत्तन्ति। ३८. तत्थ कप्पविनासकमहामेघतो याव कप्पविनासकुदकूपच्छेदो, इदमेकं असङ्ख्येय्यं । उदकूपच्छेदतो याव सम्पत्तिमहामेघो, इदं दुतियं असङ्ख्येय्यं । सम्पत्तिमहामेघतो... पे०...इमानि चत्तारि असङ्ख्येय्यानि एको महाकप्पो होति। एवं उदकेन विनासो च सण्ठहनं च वेदितब्बं । (२) ३९. यस्मि समये कप्पो वातेन विनस्सति, आदितो व कप्पविनासकमहामेघो उट्ठहित्वा ति पुब्बे वुत्तनयेनेव वित्थारेतब्बं । अयं पन विसेसो-यथा तत्थ दुतियसुरियो, एवमिध कप्पविनासनत्थं वातो समुट्ठाति । सो पठमं थूलरजं उट्ठापेति। ततो सण्हरजं, सुखुमवालिकं, थूलवालिकं, सक्खरपासाणादयो ति याव कूटागारमत्ते पासाणे विसमट्ठाने ठितमहारुक्खे च उट्ठापेति। ते पथवितो नभमुग्गता न च पुन पतन्ति, तत्थेव चुण्णविचुण्णा हुत्वा अभावं गच्छन्ति। उठता है। वह पहले धीरे धीरे बरसता है, फिर क्रमशः महाधाराओं से दस खरब चक्रवालों को भरता हुआ बरसता है। जहाँ जहाँ खारे जल से सम्पर्क होता है, वहाँ वहाँ पृथ्वी, पर्वत आदि विलीन हो जाते हैं। चारों ओर से जल वायु द्वारा धारण किया जाता है। पृथ्वी से लेकर द्वितीय ध्यान-भूमि तक जल छा जाता है। वहाँ तीनों ही ब्रह्मलोकों को विलीन करता हुआ, शुभकृत्स्त्र में आकर रुकता है। जब तक अणुमात्र भी संस्कार शेष रहते हैं, तब तक वह शान्त नहीं होता। जल में डूबे हुए सभी संस्कारों को अभिभूत कर, सहसा शान्त हो जाता है, अन्तर्हित हो जाता है। निचले आकाश के साथ ऊपरी आकाश में एक साथ महाअन्धकार हो जाता है-यों, सब पहले के समान है। किन्तु केवल (यह अन्तर है कि) यहाँ लोक का प्रादुर्भाव ब्रह्मलोक से होता है, एवं शुभकृष्ण से च्युत होकर आभास्वर आदि स्थानों में सत्त्व उत्पन्न होते हैं। ३८. यहाँ, कल्पविनाशक मेघ से लेकर कल्पविनाशक जल के नाश तक-यह एक असंख्येय है। जल के नाश से लेकर पुनर्जीवनदायी महामेघ तक-यह एक असंख्येय है। पुनर्जीवनदायी महामेघ से...पूर्व...इन चार असंख्येयों को मिलाकर एक महाकल्प होता है। यों, जल द्वारा विनाश एवं पुनः सृष्टि को समझना चाहिये। (२) । ३९. जिस समय वायु से कल्प विनष्ट होता है, 'आरम्भ में ही कल्पविनाश मेघ उठकर'यों पूर्वोक्त प्रकार से ही विस्तार करना चाहिये। अन्तर यह है-जैसे वहाँ द्वितीय सूर्य, वैसे यहाँ कल्पविनाश के लिये वायु चलती है। वह पहले स्थूल रज को उड़ाती है, फिर सूक्ष्म रज, सूक्ष्म बालू, स्थूल बालू, कङ्कड़-पत्थर

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