Book Title: Visuddhimaggo Part 02
Author(s): Dwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
Publisher: Bauddh Bharti

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Page 364
________________ अभिज्ञानिदेसो ३३७ ४०. अथानुक्कमेन हेट्ठा महापठविया वातो समुट्ठहित्वा पठविं परिवत्तेत्वा उद्धं मूलं कत्वा आकासे खिपति। योजनसतप्पमाणा पि पठविप्पदेसा द्वियोजन-तियोजन-चतुयोजनपञ्चयोजनसतप्पमाणा पि भिज्जित्वा वातवेगेन खित्ता आकासे येव चुण्णविचुण्णा हुत्वा अभावं गच्छन्ति। चक्कवाळपब्बतं पि सिनेरुपब्बतं पि वातो उक्खिपित्वा आकासे खिपति। ते अञ्जमलं अभिहन्त्वा' चुण्णविचुण्णा हुत्वा विनस्सन्ति । एतेनेव उपायेन भुम्मट्ठकविमानानि च आकासट्ठकविमानानि च विनासेन्तो छ कामावचरदेवलोके विनासेत्वा कोटिसतसहस्सचक्कवाळानि विनासेति। तत्थ चक्कवाळा चक्कवाळेहि हिमवन्ता हिमवन्तेहि सिनेरू सिनेरूहि अज्ञमचं समागन्त्वार चुण्णविचुण्णा हुत्वा विनस्सन्ति। पठवितो याव ततियज्झानभूमिं वातो गण्हाति। तत्थ तयो ब्रह्मलोके विनासेत्वा वेहप्फलं आहच्च तिट्ठति। एवं सब्बसङ्घारगतं विनासेत्वा सयं पि विनस्सति। हेट्ठाआकासेन सह उपरिआकासो एको होति महन्धकारो ति सब्बं वुत्तसदिसं। इध पन सुभकिण्हब्रह्मलोकं आदि कत्वा लोको पातुभवति। वेहप्फलतो च चवित्वा सुभकिण्हटानादीसु सत्ता निब्बत्तन्ति। तत्थ कप्पविनासकमहामेघतो याव कप्पविनासकवातूपच्छेदो, इदमेकं असङ्ख्येय्यं। वातूपच्छेदतो याव सम्पत्तिमहामेघो, इदं दुतियं असङ्खयेय्यं...पे०...इमानि चत्तारि असङ्ख्येय्यानि एको महाकप्पो होति। एवं वातेन विनासो च सण्ठहनं च वेदितब्बं । (३) यों कूटागार (दुमंजिले भवन) जितने विशाल पत्थर, एवं ऊबड़-खाबड़ स्थान में स्थित विशाल वृक्ष को भी उड़ा ले जाती है। वे पृथ्वी से आकाश में उठ जाने पर पुन: गिरते नहीं, अपितु वहीं चूर चूर होकर नष्ट हो जाते हैं। ____४०. तब क्रमश: नीचे महापृथ्वी से उठने वाली वायु पृथ्वी को उलटकर मूल (=निचले) भाग को ऊपर करके आकाश में फेंक देती है। सौ योजन विस्तृत भूभाग भी, दो-तीन-चार-पाँच योजन विस्तृत भी, तोड़कर वायुवेग से फेंक दिये जाते हैं एवं आकाश में ही चूर चूर होकर नष्ट हो जाते हैं। चक्रवाल पर्वत को एवं सुमेरु पर्वत को भी वायु उड़ाकर आकाश में फेंक देती है। वे एक-दूसरे से टकराकर, चूर-चूर होकर नष्ट हो जाते हैं। इसी प्रकार भूमि के आठ एवं आकाश के आठ विमानों को विनष्ट करते हुए, कामावचर (भूमि के) छह देवलोकों का विनाश कर, दस खरब चक्रवालों का विनाश करती है। चक्रवाल चक्रवालों से, हिमालय हिमालयों से, सुमेरु सुमेरुओं से टकराकर, चूर-चर होकर नष्ट हो जाते हैं। वायु पृथ्वी से लेकर तृतीय ध्यानभूमि तक फैल जाती है। वहाँ तीन ब्रह्मलोकों का विनाश कर, बृहत्फल पर आकर रुकती है। ग्यों, सभी संस्कृत धर्मों का विनाश कर स्वयं भी विनष्ट हो जाती है। निचले आकाश से ऊपरी आकाश तक, सर्वत्र निविड़ अन्धकार छा जाता है-यह सब (पूर्व में) उक्त के समान है। किन्तु यहाँ लोक का प्रादुर्भाव शुभकृत्स्त्र लोक से आरम्भ होता है। एवं सत्त्व बृहत्फल से च्युत होकर शुभकृत्स्न आदि स्थानों में उत्पन्न होते हैं। यहाँ कल्पविनाशक मेघ से लेकर कल्पविनाशक वायु के नाश तक-यह एक असंख्येय है। वायु के नाश से लेकर पुनर्जीवनदायी महामेघ तक-यह द्वितीय असंख्येय है ...पूर्ववत्... इन १. अभिहन्त्वा ति। घट्टेत्वा। २. समागन्त्वा ति। घट्टेत्वा।

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