Book Title: Visuddhimaggo Part 02
Author(s): Dwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
Publisher: Bauddh Bharti

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Page 358
________________ अभिज्ञानिद्देसो ३३१ भवनं गण्हाति । एतेनेव उपायेन याव पठमज्झानभूमिं गण्हाति। तत्थ तयो पि ब्रह्मलोके झापेत्वा आभस्सरे आहच्च तिट्ठति। सा याव अणुमत्तं पि सङ्घारगतं अत्थि, ताव न निब्बायति। सब्बसङ्घारपरिपक्खया पन सप्पितेलझापनग्गिसिखा विय छारिकं पि अनवसेसेत्वा निब्बायति । हेट्ठाआकासेन सह उपरि आकासो एको होति महन्धकारो। २८. अथ दीघस्स अद्भुनो अच्चयेन महामेघो उट्ठहित्वा पठमं सुखुमं सुखुमं वस्सति। अनुपुब्बेन कुमुदनाळ-यट्ठि-मुसल-तालक्खन्धादिप्पमाणाहि धाराहि वस्सन्तो कोटिसतसहस्सचक्कवाळेसु सब्बं दड्डट्ठानं पूरेत्वा अन्तरधायति। तं उदकं हेट्ठा च तिरियं च वातो समुठ्ठहित्वा घनं करोति परिवटुमं पदुमिनिपत्ते उदकबिन्दुसदिसं। कथं ताव महन्तं उदकरासिं घनं करोती ति चे? विवरसम्पदानतो। तं हिस्स तम्हि तम्हि विवरं देति। तं एवं वातेन सम्पिण्डियमानं घनं करियमानं परिक्खयमानं अनुपुब्बेन हेट्ठा ओतरति। ओतिण्णे ओतिण्णे उदके ब्रह्मलोकट्ठाने ब्रह्मलोका, उपरिचतुकामावचरदेवलोकट्ठाने च देवलोका पातुभवन्ति। . २९. पुरिमपठविट्ठानं ओतिण्णे पन बलववाता उपपज्जन्ति । ते तं पिहितद्वारे धमकरणे ठितउदकमिव निरुस्सासं कत्वा रुम्भन्ति। मधुरोदकं परिक्खयं गच्छमानं उपरि रसपठविं समुट्ठापेति। सा वण्णसम्पन्ना चेव होति गन्धरससम्पन्ना च निरुदकपायासस्स उपरि पटलं विय। उठकर चातुर्महाराज (नामक देवों के क्षेत्र) में फैल जाती है। वहाँ कनकविमान, रत्नविमान, मणिविमान आदि को जलाकर त्रायस्त्रिंश भवन को पकड़ लेती है इसी प्रकार प्रथम ध्यान-भूमि तक फैलती है। वहाँ तीनों ब्रह्मलोकों को जलाकर आभास्वर में आकर रुकती है। जब तक अणुमात्र भी संस्कारगत (संस्कृत) धर्म शेष रहता है, वह नहीं बुझती। सब संस्कारों के नष्ट हो जाने पर, घी या तैल से जलने वाली अग्निशिखा के समान, भस्म (राख) भी न छोड़ते हुए बुझ जाती है। निचले आकाश के साथ ऊपरी आकाश में एक साथ घोर अन्धकार छा जाता है। . . विवर्तकल्प (सृष्टि) २८. उसके भी बहुत समय बाद महामेघ उमड़कर पहले तो धीरे धीरे बरसते हैं। फिर क्रमशः कमलनाल, यष्टि (=लाठी), मूसल, ताड़ के स्कन्ध (=कुन्दे) के आकार की धाराएँ बरसाते हुए दस खरब चक्रवालों के दग्ध स्थानों को भरते हुए अन्तर्हित हो जाते हैं। वायु. उस जल को नीचे से एवं चारों ओर से उठाते हुए घनीभूत एवं गोलाकार बनाती हैं, कमलिनी पत्र पर जल की बूंद के समान । यदि पूछा जाय कि उस महान् जलराशि को कैसे घनीभूत करती है? (तो उत्तर है) कि (बीच-बीच में) विवर (खोखला) करने से। क्योंकि वह इसमें जहाँ तहाँ विवर कर देती है। वायु द्वारा यों पिण्डीभूत, घनीभूत एवं (परिमाण में) कम किया गया वह (जल) क्रमशः नीचे उतरता है। नीचे उतरने पर ब्रह्मलोक के स्थान पर ब्रह्मलोक का एवं ऊपर चार कामावचर देवलोकों के स्थान पर देवलोकों का प्रादुर्भाव होता है। २९. जहाँ पहले पृथ्वी थी, उस स्थान पर (जल के) उतरने पर तेज हवाएं चलने लगती १. परिवटुमं ति। वट्टभावेन परिच्छिन।

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