Book Title: Visuddhimaggo Part 02
Author(s): Dwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
Publisher: Bauddh Bharti

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Page 356
________________ अभिञनिद्देसो ३२९ अयं च महापथवी सिनेरु च पब्बतराजा उद्दव्हिस्सन्ति विनस्सिस्सन्ति । याव ब्रह्मलोका लोकविनासो भविस्सति । मेत्तं, मारिसा, भावेथ, करुणं...मुदितं...उपेक्खं, मारिसा, भावेथ, मातरं उपट्टहथ, पितरं उपट्टहथ, कुले जेट्ठापचायिनो होथा " ति । २५. तेसं वचनं सुत्वा येभुय्येन मनुस्सा च भुम्मदेवता च संवेगजाता अञ्ञमञ मुदुचित्ता हुत्वा मेत्तादीनि पुञ्ञानि करित्वा देवलोके निब्बत्तन्ति । तत्थ दिब्बसुधाभोजनं भुञ्जत्वा वायोकसि परिकम्मं कत्वा झानं पटिलभन्ति । तदचे पन अपरापरियवेदनीयेन कम्मेन देवलोके निब्बत्तन्ति । अपरापरियवेदनीयकम्मरहितो हि संसारे संसरमानो सत्तो नाम नत्थि। ते पि तत्थ तथेव झानं पटिलभन्ति । एवं देवलोके पटिलद्धज्झानवसेन सब्बे ब्रह्मलोके निब्बत्तन्तीति । २६. वस्सूपच्छेदतो पन उद्धं दीघस्स अद्भुनो अच्चयेन दुतियो सुरियो पातुभवति । वृत्तं पि चेतं भगवता–‘“होति खो सो, भिक्खवे, समयो" ति ( अं० नि० ३ / २९२) सत्तसुरियं वित्थारेतब्बं। पातुभूते च पन तस्मि नेव रत्तिपरिच्छेदो, न दिवापरिच्छेदो पञ्ञायति । एको सुरियो उट्ठेति, एको अत्थं गच्छति, अविच्छिन्नसुरियसन्तापो व लोको होति । यथा च पकतिसुरिये सुरियदेवपुत्तो होति, एवं कप्पविनासकसुरिये नत्थि । तत्थ पकतिसुरिये वत्तमाने एवं विशाल पृथ्वी तथा पर्वतराज सुमेरु भी समाप्त हो जायगें, विनष्ट हो जायगें । ब्रह्मलोक का विनाश होगा। अतः, मार्ष ! मैत्री की भावना करो। मार्ष, करुणा... मुदिता... उपेक्षा की भावना करो, माता-पिता की सेवा करो तथा कुल के बड़े-बूढ़ों का सत्कार करने वाले बनो।" २५. उनके वचन सुनकर अधिकतर मनुष्यों एवं भूमि पर रहने वाले देवताओं में संवेग उत्पन्न होता है एवं वे मृदुचित्त से मैत्री आदि पुण्य करके देवलोक में उत्पन्न होते हैं। वहाँ दिव्य अमृत का भोजन कर, वायु कसिण में परिकर्म कर, ध्यान का लाभ करते हैं। उनके अतिरिक्त (कुछ सत्त्व) अपरापश्वेदनीय कर्म द्वारा देवलोक में उत्पन्न होते हैं। संसार में संसरण करने वाला ऐसा कोई सत्त्व नहीं है जो अपरापरवेदनीय कर्म से रहित हो । वे भी वहीं वहीं ध्यान का लाभ करते हैं। इस प्रकार देवलोक में प्राप्त ध्यान के बल से वे सभी ब्रह्मलोक में उत्पन्न होते हैं। २६. वर्षा बन्द होने के बाद बहुत समय बीतने पर द्वितीय सूर्य निकलता है । भगवान् ने यह कहा भी है—'भिक्षुओ, एक समय वह होता है" (अं० नि० ३ / २९२ ) – यहाँ सत्तसुरिय नामक सूत्र को विस्तार से बतलाना चाहिये। उसका प्रादुर्भाव होने पर न तो रात की सीमा, न दिन की सीमा का पता चलता है। एक सूर्य उदित होता है, दूसरा अस्त होता है। लोक में निरन्तर सूर्य का ताप बना रहता है। जैसे प्राकृतिक सूर्य देवपुत्र होता है, वैसा कल्पविनाशक सूर्य नहीं होता। वहाँ (आकाश में) प्राकृतिकं सूर्य के रहते हुए बादल भी, धूमशिखा (कोहरा) भी गतिशील रहते हैं। कल्पविनाशक सूर्य के वर्तमान रहने पर आकाश धुएँ एवं बादलों से रहित, दर्पणमण्डल १. सत्तसुरियं ति । सत्तसुरियपातुभावसुतं । (अं० नि० ३ : ७-२)) २. द्र० विसु० (१९वाँ परिच्छेद) । ३. सात सूर्यों के प्रादुर्भाव का वर्णन करने वाला सूत्र ।

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