Book Title: Visuddhimaggo Part 02
Author(s): Dwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
Publisher: Bauddh Bharti

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Page 354
________________ अभिनिद्देस ३२७ सुभकिण्हतो हेट्ठा उदकेन विलीयति । यदा वायुना संवदृति, वेहप्फलतो हेट्ठा वातेन विद्धंसति । वित्थारतो पन सदा पि एकं बुद्धक्खेत्तं विनस्सति । २२. बुद्धखेत्तं नाम तिविधं होति – जातिखेत्तं, आणाखेत्तं, विसयखेत्तं च । तत्थ (१) जातिखेत्तं दससहस्सचक्रवाळपरियन्तं होति । यं तथागतस्स पटिसन्धिग्गहणादीसु कम्पति । (२) आणाखेत्तं कोटिसतसहस्सचक्कवाळपरियन्तं यत्थ रतनसुत्तं (खु० नि० १ / ६), खन्धपरित्तं (अं० नि० २ / १००), धजग्गपरित्तं (सं० नि० १ / ३५१), आटानाटियपरित्तं (दी० नि० ३/७४८), मोरपरित्तं (खु०नि० ३ : १ / ३६ ) ति इमेसं परित्तानं आनुभावो वत्तति । (३) विसयखेत्तं अनन्तमपरिमाणं । यं " यावता वा पन आकङ्क्षय्या" ति वुत्तं । यत्थ यं यं तथागत आकङ्क्षति, तं तं जानाति । एवमेतेसु तीसु बुद्धखेत्तेसु एकं आणाखेतं विनस्सति । तस्मि पन विनस्सन्ते जातिखेत्तं पि विनट्ठमेव होति । विनस्सन्तं च एकतो व विनस्सति, सण्ठहन्तं पि एकतो व सण्ठहति । तस्सेवं विनासो च सण्ठहनं च वेदितब्बं २३. यस्मि हि समये कप्पो अग्गिना नस्सति, आदितो व कप्पविनासकमहामेघो वुट्ठहित्वा कोटिसतसहस्सचक्कवाळे एकं महावस्सं वस्सति । मनुस्सा तुट्ठहट्ठा सब्बबीजानि है – “भिक्षुओ, चार असंख्येय कल्प हैं। कौन से चार ? संवर्त, संवर्तस्थायी, विवर्त, विवर्तस्थायी ।" ( अं० नि० २ / १९६ ) । • संवर्त (प्रलय ) - इनमें, संवर्त तीन हैं- अप्-संवर्त, तेजः संवर्त, वायु- संवर्त । संवर्त की तीन सीमाएँ हैं -- आभास्वर, शुभकृष्ण, वृहत्फल । जब अनि द्वारा कल्प का संवर्त ( = प्रलय) होता है, तब आभास्वर से नीचे (का क्षेत्र) अग्नि से दग्ध हो जाता है। जब अप् द्वारा संवर्त होता है, तब शुभकृष्ण से नीचे जल में विलीन हो जाता है। जब वायु द्वारा संवर्त होता है, तब वृहत्फल से नीचे का वायु द्वारा विध्वस्त हो जाता है । विस्तार ( = चौड़ाई) की दृष्टि से सर्वदा ही एक बुद्धक्षेत्र विनष्ट होता है । २२. बुद्धक्षेत्र त्रिविध होता है - १. जातिक्षेत्र, १. आज्ञाक्षेत्र एवं ३. विषयक्षेत्र । इनमें, ( १ ) जातिक्षेत्र दस हजार चक्रवाल पर्यन्त होता है, जो तथागत के प्रतिसन्धि-ग्रहण आदि के समय कम्पित होता है । (२) आज्ञा - क्षेत्र दस खरब चक्रवाल पर्यन्त होता है, जहाँ रतन सुत्त (खु०नि० १/ ६), खन्धपरित्त (अं० नि० २ / १००), धजग्गपरित्त (सं० नि० १ / ३५१), आटानाटियपरित्त (दी० नि० ३/७४८), मोर परित्त (खु० नि० ३ : १ / ३६ ) - ये परित्राण ( = परित्त) प्रभावी होते हैं। (३) विषय-क्षेत्र अनन्त, असीम है। जिसके विषय में 'अथवा जहाँ तक आकांक्षा हो' आदि कहा गया है। जहाँ तथागत जिसे जिसे चाहते हैं, उसे उसे जानते हैं। यों, इन तीन बुद्धक्षेत्रों में से एक आज्ञाक्षेत्र (संवर्त में) विनंष्ट होता है। उसके विनष्ट होने पर जातिक्षेत्र भी विनष्ट हो ही जाता है। एवं विनष्ट होते समय उसके साथ विनष्ट होता है, तथा पुनर्निर्माण के समय उसी के साथ पुनर्निर्मित होता है । उस (आज्ञाक्षेत्र एवं जातिक्षेत्र) के विनाश एवं पुनर्निर्माण को यों जानना चाहिये२३. जिस समय कल्प अग्नि से नष्ट होता है, कल्प का विनाश करने वाले महामेघ उमड़ 2-23


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