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अभिञानिद्देसो
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चुतिक्खणे पवत्तितनामरूपं आरम्मणं कातुं" ति धुरनिक्खेपो न कातब्बो । तदेव पन पादकज्झानं पुनपुनं समापज्जितब्बं । ततो च वुट्ठाय वुट्ठाय तं ठानं आवज्जितब्बं ।
१९. एवं करोन्तो हि, सेय्यथापि नाम बलवा पुरिसो कूटागारकण्णिकत्थाय महारुक्खं छिन्दन्तो साखापलासछेदनमत्तेनेव फरसुधाराय विपन्नाय महारुक्खं छिन्दितुं असक्कोन्तो पि धुरनिखे अकत्वा व कम्मारसालं गन्त्वा तिखिणं फरसुं कारापेत्वा पुन आगन्त्वा छिन्देय्य, पुन विपन्नाय च पुनपि तथेव कारेत्वा छिन्देय्य, सो एवं छिन्दन्तो छिन्नस्स छिन्नस्स पुन छेतब्बाभावतो अच्छिन्नस्स च छेदनतो न चिरस्सेव महारुक्खं पातेय्य; एवमेवं पादकज्झाना वुट्ठाय पुब्बे आवज्जितं अनावज्जित्वा पटिसन्धिमेव आवज्जन्तो न चिरस्सेव पटिसन्धि उग्घाटेत्वा चुतिक्खणे पवत्तितनामरूपं आरम्मणं करेय्या ति ।
कट्ठफालक-केसोहारकादीहि पि अयमत्थो दीपेतब्बो ।
२०. तत्थ पच्छिमनिसज्जतो पभुति याव पटिसन्धितो आरम्मणं कत्वा पवत्तं आणं पुब्बेनिवासत्राणं नाम न होति । तं पन परिकम्मसमाधित्राणं नाम होति । अतीतंसाणं
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था, उसका आवर्जन करे । पण्डित भिक्षु पहली बार में ही प्रतिसन्धि (रूपी ज्ञानावरण) हटाकर, (उसके पूर्ववर्ती) च्युतिक्षण के नाम-रूप को आलम्बन बनाने में समर्थ होता है ।
१८. क्योंकि पूर्वभव में नाम-रूप का अशेष निरोध हो जाता है, एवं अन्य ही (नामरूप) उत्पन्न होता है, अतः वह स्थान ( = कालखण्ड) ऐसे गहन अन्धकार के समान होता है, जहाँ हाथ को हाथ न सूझता हो ।' वह दुष्प्रज्ञ के लिये दुर्दर्श होता है तथापि 'मैं प्रतिसन्धि को दूर हटाकर च्युतिक्षण में प्रवर्तित नाम-रूप को आलम्बन नहीं बना सकूँगा' - यह सोचकर पराजय नहीं मान लेनी चाहिये, अपितु उसी आधारभूत ध्यान में पुनः पुनः समापत्र होने के पश्चात् उससे उठ उठकर उस स्थान का आवर्जन करना चाहिये ।
१९. जैसे कोई बलवान् पुरुष कुटिया छाने के लिये किसी विशाल वृक्ष को काटते समय, उस विशाल वृक्ष को न काट सकें; क्योंकि उसके फरसे की धार डालियों पत्तों को काटते काटते भोंथरी हो चुकी हो, फिर भी वह हार न मानते हुए लोहार के यहाँ जाकर फरसे की धार तेज कराकर फिर से आकर काटे । पुनः भोंथरी होने पर पुनः तेज कराकर काटे । उसके ऐसा करने पर जल्दी ही वह विशाल वृक्ष गिर पड़े; क्योंकि जितना जितना पहले काट चुका था, उसे तो पुनः काटना नहीं था, जितना नहीं काटा था केवल उसे ही काटना था । इसी प्रकार, ऐसा करने वाला (योगी) आधारभूत ध्यान से उठकर पूर्व में जिसका आवर्जन हो चुका उसका आवर्जन न करते हुए एवं प्रतिसन्धिमात्र का ही आवर्जन करते हुए, शीघ्र ही प्रतिसन्धि को उघाड़ कर, च्युतिक्षण में प्रवर्तित नाम-रूप को आलम्बन बना लेता है।
लकड़हारे, नाई आदि (की उपमाओं के) द्वारा भी इस अर्थ का स्पष्टीकरण होना चाहिये । २०. इनमें सबसे अन्त में बैठने (का जो कार्य था उस) के समय से लेकर प्रतिसन्धि
१. 'आहुन्दरिकं" का अर्थ कतिपय विद्वानों के अनुसार संकीर्ण या अगम्य स्थान वाला है, जो अन्धतम के विशेषण के रूप में आया है। कुछ के अनुसार 'आहुन्दरिकं' का अर्थ है, 'जैसे सर्प एवं मूषक एक-दूसरे को नहीं देख पाते, वैसा।' दोनों का तात्पर्य निविड़ अन्धकार से ही है ।