Book Title: Visuddhimaggo Part 02
Author(s): Dwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
Publisher: Bauddh Bharti

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Page 353
________________ ३२६ विसुद्धिमग्गो एके वदन्ति। तं रूपावचर सन्धाय न युज्जति। यदा पनस्स भिक्खुनो पटिसन्धिं अतिक्कम्म चुतिक्खणे पवत्तितनामरूपं आरम्मणं कत्वा मनोद्वारावज्जनं उपज्जति, तस्मिं च निरुद्धे तदेवारम्मणं कत्वा चत्तारि पञ्च वा जवनानि जवन्ति। येसं पुब्बे वुत्तनयेनेव पुरिमानि परिकम्मादिनामकानि कामावचरानि होन्ति, पच्छिमं रूपावचरं चतुत्थज्झानिकं अप्पनाचित्तं, तदास्स यं तेन चित्तेन सह आणं उप्पज्जति, इदं पुब्बेनिवासानुस्सतित्राणं नाम। तेन जाणेन सम्पयुत्ताय सतिया "अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुस्सरति। सेय्यथीदं-एकं पि जाति, द्वे पि जातियो ...पे०... इति साकारं सउद्देसं अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुस्सरती" (दी० नि० १। ८९) ति। २१. तत्थ एकं पि जातिं ति। एकं पि पटिसन्धिमूलं चुतिपरियोसानं एकभवपरियापन्नं खन्धसन्तानं । एस नयो द्वे पि जातियो ति आदीसु पि। अनेके पि संवट्टकप्पे ति आदीसु पन परिहायमानो कप्पो संवट्टकप्पो, वड्डमानो विवट्टकप्पो ति वेदितब्बो। तत्थ संवट्टेन संवट्टट्ठायी गहितो होति, तम्मूलकत्ता। विवट्टेन च विवट्टठ्ठायी। एवं हि सति यानि तानि "चत्तारीमानि, भिक्खवे, कप्पस्स असङ्ख्येय्यानि। कतमानि चत्तारि? संवट्टो, संवट्ठायी, विवट्टो, विवट्ठायी" (अं० नि० २/१९६) ति वुत्तानि, तानि परिग्गहितानि होन्ति। तत्थ तयो संवट्टा-आपोसंवट्टो, तेजोसंवट्टो, वायोसंवट्टो ति। तिस्सो संवट्टसीमा - आभस्सरा, सुभकिण्हा, वेहप्फला ति। यदा कप्पो तेजेन संवदृति, आभस्सरतो हेट्ठा अग्गिना डव्हति यदा आपेन संवट्टति, तक को आलम्बन बनाकर प्रवृत्त हुए ज्ञान को पूर्वनिवासज्ञान नहीं कहा जाता। उसे 'परिकर्म समाधिज्ञान' कहते हैं (जो कि पूर्वनिवासानुस्मृतिज्ञान के लिये प्रारम्भिक तैयारी मात्र है)। कोई कोई उसे अतीत-संज्ञान भी कहते हैं। किन्तु इसकी सङ्गति रूपावचर के साथ नहीं होती। जब इस भिक्षु द्वारा प्रतिसन्धि का अतिक्रमण कर च्युतिक्षण में प्रवर्तित नाम-रूप को आलम्बन बनाने पर मनोद्वारावर्जन उत्पन्न होता है, तब उसके निरुद्ध होने पर चार या पाँच जवन (चित्त) जवन करते हैं। जिनमें, पूर्वोक्त प्रकार से ही, पहले वाले परिकर्म आदि कामावचर होता है, बाद वाला रूपावचर चतर्थ ध्यान वाला अर्पणा चित्त होता है। उस चित्त के साथ उसे जो जान उत्पन्न होता है, उसे 'पूर्वनिवासानुस्मृतिज्ञान' कहते हैं। उस ज्ञान से सम्प्रयुक्त स्मृति से “पूर्वनिवास का अनुस्मरण करता है। जैसे-एक जन्म का भी, दूसरे जन्म का भी, यों विस्तार के साथ एवं उद्देश्य के साथ अनेक प्रकार के पूर्वनिवास का अनुस्मरण करता है।" (दी० नि० १/८९)। २१. इनमें एकं पि जाति-जो प्रतिसन्धि से आरम्भ होता है एवं च्युति से समाप्त होता है, उस एक भव (जन्म) तक चलने वाले क्षण-सन्तान को भी। द्वे पि जातियो आदि में भी यही नय है। अनेके पि संवट्टकप्पे आदि में विनाश की ओर बढ़ते हुए कल्प को संवर्तकल्प एवं वृद्धि को प्राप्त होने वाले कल्प को विवर्तकल्प समझना चाहिये। इनमें संवर्त से संवर्तस्थायी का (भी) ग्रहण होता है, उसका मूल होने से एवं वितर्क से विवर्तस्थायी का (भी)। ऐसा होने से, जो इस प्रकार बतलाये गये हैं उनका भी ग्रहण होता १. संवट्टसीमा ति। संवट्टमरियादा।

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