Book Title: Visuddhimaggo Part 02
Author(s): Dwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
Publisher: Bauddh Bharti

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Page 348
________________ अभिञानिद्देसो ३२१ पुब्बेनिवासानुस्सती ति। याय सतिया पुब्बेनिवासं अनुस्सरति, सा पुब्बेनिवासानुस्सति । आणं ति। ताय सतिया सम्पयुत्तत्राणं। एवमिमस्स पुब्बेनिवासानुस्सतित्राणस्स अत्थाय पुब्बेनिवासानुस्सतिबाणाय। एतस्स आणस्स अधिगमाय, पत्तिया ति वुत्तं होति। . १०. अनेकविहितं ति। अनेकविधं, अनेकेहि वा पकारेहि पवत्तितं। संवण्णितं ति अत्थो। पुब्बेनिवासं ति। समनन्तरातीतं भवं आदि कत्वा तत्थ निवुत्थसन्तानं । अनुस्सरती ति। खन्धपटिपाटिवसेन चुतिपटिसन्धिवसेन वा अनुगन्त्वा अनुगन्त्वा सरति । इमं हि पुब्बेनिवासं छ जना अनुस्सरन्ति-तित्थिया, पकतिसावका, असीति महासावका, अग्गसावका, पच्चेकबुद्धा, बुद्धा ति। ११. तत्थ तित्थिया चत्तालीसं येव कप्पे अनुस्सरन्ति, न ततो परं। कस्मा? दुब्बलपञत्ता। तेसं हि नामरूपपरिच्छेदविरहितत्ता दुब्बला पञा होति। पकतिसावका कप्पसतं पि कप्पसहस्सं पि अनुस्सरन्ति येव, बलवपञत्ता। असीति महासावका सतसहस्सकप्पे अनुस्सरन्ति । द्वे अग्गसावका एकं असङ्ख्येय्यं सतसहस्सं च। पच्चेकबुद्धा द्वे असङ्ख्येय्यानि सतसहस्सं च । एत्तको हि एतेसं अभिनीहारो। बुद्धानं पन परिच्छेदो नाम नत्थि। १२. तित्थिया च खन्धपटिपाटिमेव सरन्ति, पटिपाटिं मुञ्चित्वा चुतिपटिसन्धिवसेन निवसित-गोचर-निवास के रूप में निवसित, अपने विज्ञान द्वारा विज्ञात, परिमित। अथवा, जिनके लिये संसार-चक्र छिन्न हो चुका है, उनमें परविज्ञान से भी विज्ञात। वे बुद्धों को ही प्राप्त होते हैं। पुब्बेनिवासानुस्सति-जिस स्मृति द्वारा पूर्व के निवास का अनुस्मरण करता है; वह पूर्वनिवासानुस्मृति है। जाण-उस स्मृति से सम्प्रयुक्त ज्ञान। यों, इस पूर्वनिवासानुस्मृति ज्ञान के लिये... । अर्थात् इस ज्ञान के अधिगम, प्राप्ति के लिये।। १०. अनेकविहितं-अनेकविध, या अनेक प्रकार से प्रवर्तित संवर्णित (सम्यक् रूप से, विस्तारपूर्वक वर्णित)-यह अर्थ है। पुब्बेनिवासं-इस जन्म के ठीक पूर्ववर्ती जन्म से लेकर, उसके पहले यहाँ वहाँ निवास करने वाली सन्तति । अनुस्सरति-स्कन्ध क्रम के अनुसार या च्युति एवं प्रतिसन्धि के अनुसार (काल की दृष्टि से) पीछे जा जाकर स्मरण करता है। इस पूर्वनिवास का छह प्रकार के योगी जन अनुस्मरण करते हैं-तीर्थिक, प्रकृतिश्रावक, महाश्रावक, अग्रश्रावक, प्रत्येकबुद्ध, बुद्ध। ११. इनमें तीर्थिक चालीस कल्पों का ही अनुस्मरण करते हैं, उसके पूर्व का नहीं। क्यों? प्रज्ञा दुर्बल होने से। क्योंकि नामरूप-निश्चय से रहित होने से उनकी प्रज्ञा दुर्बल होती है। प्रकृतिश्रावक-सौ कल्प या हजार कल्प का भी अनुस्मरण करते हैं, प्रज्ञा के बलवान् होने से। अस्सी महाश्रावक-एक लाख कल्प का अनुस्मरण करते हैं। दो अग्रश्रावक (स्थविर सारिपुत्र एवं मौद्गल्यायन)। एक असंख्येय लाख कल्प का। प्रत्येकबुद्ध दो असंख्येय लाख कल्प का। इनका अभिनीहार (मन को पीछे ले जाना) इतने तक ही होता है। किन्तु बुद्धों के लिये कोई सीमा नहीं है। १२. तथा तीर्थिक स्कन्ध-क्रम का ही अनुस्मरण करते हैं। उनमें (इस) क्रम को छोड़कर १. अग्रश्रावकों एवं महाश्रावकों के अतिरिक्त शेष सभी श्रावक।

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